एक ऐसे क्रांतिवीर है शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, जिनकी देश के लिए दी गयी कुर्बानी आज भी आँखे नम कर देती है. भारत को स्वतंत्रा मिले 69 साल हो गए लेकिन आज भी कई ऐसे क्रांतिकारी है जिनके नाम हम हमेशा याद रखे जायेंगे. जब ऐसे क्रांतिकारियों की बात की जाएं तो शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का नाम कैसे भूला जा सकता है. अगर आज भी इतिहास के उन पन्नों को पलटा जाए तो भगत सिंह की देश के लिए कुर्बानी आज भी लोगों के दिलो को छू जाएगी. भारत माता ने 23 मार्च 1931 को अपने तीन लाल खो दिए थे. भगत सिंह समेत राजगुरु और सुखदेव को लाहौर जेल में फांसी की सजा दे दी गई थी. इससे पहले भगत सिंह लाहौर से दिल्ली निकल गए.
लाहौर से आने के बाद भगत सिंह कई स्थानों पर रहें, उनमें से एक दिल्ली भी था. वे दिल्ली में पुरानी दिल्ली के कूंचा घासीराम में भी रहे. आपको बता दे यहाँ पर जिस शख्स ने इन्हें आश्रय दिया वो अभी भी जिन्दा हैं. उनका नाम नसीम मिर्ज़ा चंगेजी है तथा उम्र 106 साल है. चंगेजी साहब स्वयं में एक जीता जागता इतिहास है. चंगेजी साहब की उम्र उस वक़्त 37 थी. भगत जी को अपने घर आश्रय देने का अवसर उन्हें मिला था.
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भगत सिंह ब्राह्मण के भेष में बैरिस्टर आसिफ अली के नाम का पैगाम लेकर चंगेजी के पास आये जिसमे लिखा था कि यह आपके पास रहेगा. और उन्होंने भगत सिंह को आश्रय दिया. भगत सिंह के भोजन के लिए बराबर की दूसरी गली में रहने वाले चंगेजी के दोस्त दयाराम जो वकालत कर रहे थे के घर से खाना आता था.
फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में बैठक हुई. उस समय नेशनल असेंबली में बम फेंकने की योजना बनी थी. यह काम भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को सौंपा गया. भगत सिंह सुबह नाश्ता कर ब्राह्मण के भेष में निकल जाते और नेशनल असेंबली में मौका मुआयना करते कि कहां से बम फेंकने के लिए जाना है. भगत सिंह ने एक दिन बताया कि मुझे असेंबली में प्रवेश करने का रास्ता मिल गया है.
उन्होंने कहा था कि मैं बम फेंकूंगा जरूर, मगर कोई मरेगा नहीं. मेरा मकसद किसी को मारना नहीं है. उस जमाने में कोई मुखबिरी नहीं करता था. पुलिस को नहीं पता था कि भगत सिंह दिल्ली आ चुके हैं. चंगेजी बताते है की स्वाधीनता आंदोलन हम भी लड़ रहे थे, मगर भगत सिंह के सिर पर तो आजादी का जुनून सवार था. जज्बा ऐसा था कि वह किसी भी समय देश के लिए शहीद हो जाने के लिए तैयार थे, जबकि उनसे पहले उनके साथी अशफाक उल्ला खां को 1927 में फांसी हो चुकी थी.