राजेन्द्र लाहिड़ी का जीवन परिचय| Rajendra Lahiri History Biography, Birth, Education, Earlier Life, Death, Role in Independence in Hindi
मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि स्वतंत्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ .
– Rajendra Lahiri
राजेंद्र लाहिड़ी, जिन्हे राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के नाम से भी जाना जाता है, वह भारत स्वतन्त्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण सेनानी थे. इन्होने भारत को अंग्रेज़ो से आज़ाद कराने में बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इस लेख में आगे चलकर राजेंद्र लाहिड़ी का स्वतंत्र संग्राम में क्या नेतृत्व रहा है उसकी विस्तार में चर्चा करते है.
प्रारम्भिक जीवन | Rajendra Lahiri Early Life
नाम | राजेंद्र लाहिड़ी |
जन्मतिथि | 23 जून, 1901 |
जन्मस्थान | भड़गा ग्राम, पाबना ज़िला, बंगाल |
नागरिकता | भारतीय |
शिक्षा | काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी इतिहास विषय में एम.ए. |
पिता | क्षिति मोहन शर्मा |
माता | बसंत कुमारी |
राजेंद्र लाहिड़ी का जन्म 23 जून, 1901 को बंगाल के पाबना ज़िले के भड़गा नामक गाँव में हुआ. इनके पिता का नाम क्षिति मोहन शर्मा और माँ का नाम बसंत कुमारी था. उनके जन्म के समय उनके पिता बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कारावास में कैद थे.
वर्ष 1909 में जब राजेंद्र महज 9 साल के थे, इस समय उन्हें मामा के यहाँ वाराणसी भेजा गया, ताकि उनकी पढाई में कोई रूकावट न आये. वाराणसी में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई. वे पढाई में बेहद रूचि रखते थे. उन्होंने अपनी स्कूली पढाई वाराणसी से पूरी की तथा इतिहास विषय में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से ही उच्च शिक्षा प्रदान की. विद्यार्थी दशा में वह सबसे तेज़ और बुद्धिमान विद्यार्थी कहलाते थे. काकोरी काण्ड के दौरान लाहिड़ी ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ में इतिहास विषय में एम. ए. प्रथम वर्ष के छात्र थे.
जीवन सफ़र | Rajendra Lahiri Life Journey
जिस समय राजेन्द्र काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इतिहास में एम. ए. कर रहे रहे थे तब उनकी मुलाकात बंगाल के क्रांतिकारी ‘युगांतर’ दल के नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई थी. राजेंद्र का देश-प्रेम और आज़ादी के प्रति चाहत को देख शचीन्द्रनाथ सान्याल ने उन्हें अपने साथ रखकर बनारस से निकलने वाली पत्रिका बंग वाणी के सम्पादन का दायित्व दे दिया उसके साथ अनुशीलन समिति की वाराणसी शाखा के सशस्त्र विभाग का प्रभार भी सौंप दिया. उनका कार्य देख उन्हें हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की गुप्त बैठकों में आमन्त्रित भी किया जाने लगा.
आपको बता दें, काकोरी कांड यह घटना 9 अगस्त 1925 को घटी थी. इस कांड को सफल करने में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह समेत कुल दस क्रांतिकारियों का महत्वपूर्ण योगदान था. 9 अगस्त, 1925 को काकोरी स्टेशन से एक ट्रैन चली. यह करीब लखनऊ से 8 मील की दूरी पर थी. चलती ट्रैन में कुछ देर बाद 3 नौजवानों ने गाड़ी रोक दी. उनके ही साथियों ने गाडी में मौजूद सरकारी खजाना लूट लिया. उन जवानों ने बड़ी ही चतुराई से गाडी में बैठे यात्रियों को, धमकाया एवं समझाया था कि, उन्हें कुछ नहीं होगा, सिर्फ शांती बनाये रखे. इस बिच एक यात्री जबरदस्ती से ट्रैन से निचे उतर गया और गोली लगकर उसकी मौत हो गयी. इस घटना के बाद अंग्रेज़ो द्वारा की गयी जाँच में क्रांतिकारी पकडे गए और उन्हें सजा सुनाई गयी.
मृत्यु | Rajendra Lahiri Death
काकोरी काण्ड के बाद बिस्मिल ने लाहिड़ी को बम बनाने का प्रशिक्षण लेने बंगाल भेज दिया. कलकत्ता में कुछ दूर स्थित दक्षिणेश्वर में उन्होंने बम बनाने का सामान इकट्ठा किया. इस समय किसी साथी की असावधानी से एक बम फट गया और वह धमाका सुनकर पुलिस वहा आ गयी. और सबको गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर मुकदमा दायर किया और१० वर्ष की सजा हुई जो अपील करने पर ५ वर्ष कर दी गयी. तमाम अपीलों व दलीलों के बावजूद सरकार नहीं मानी और परिणामतः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह- एक साथ चार व्यक्तियों को फाँसी की सजा सुनाई गयी.
कहा जाता है कि, सजा मिलने के बाद भी राजेन्द्र के दिनचर्या में कोई भी बदलाव नहीं आया था. वे सुबह जागकर कसरत भी किया करते थे. यह देखकर एक दिन जेलर ने उनसे सवाल किया कि, “पूजा-पाठ तो ठीक हैं लेकिन ये कसरत क्यों करते हो अब तो फांसी लगने वाली हैं तो ये क्यों कर रहे हो?” इस समय उन्होंने कहा था कि, “अपने स्वास्थ के लिए कसरत करना मेरा रोज़ का नियम हैं और मैं मौत के डर से अपना नियम क्यों छोड़ दूँ? यह कसरत अब मैं इसलिए करता हूँ क्योंकि मुझे दूसरे जन्म में विश्वास है और मुझे दुसरे जन्म में बलिष्ठ शरीर मिले इसलिए करता हूँ, ताकि ब्रिटिश साम्राज्य को मिट्टी में मिला सकूँ”.
इनकी फांसी को लेकर जनता ने अंग्रेज़ो पर दबाव डालना शुरू किया. इस दबाव के कारण अंग्रेजी सरकार घबराने लगी थी. इसलिए उन्होंने राजेन्द्रनाथ को समय से पहले ही, 17 दिसंबर 1927 को फांसी दे दी गयी थी. इस तरह राजेंद्र जी ने ख़ुशी ख़ुशी फन्दा चूमने से पहले वंदे मातरम् की हुंकार भरते हुए कहा था – “मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि स्वतन्त्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ.”
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