समर्थ रामदास की जीवनी, जन्म परिवार, भारत भ्रमण, रचनाएँ और मृत्यु | Samarth Ramdas Biography, Birth, Family, India Tour, Books and Death in Hindi
समर्थ रामदास छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु थे और उन्हें महाराष्ट्र के महान संत के रूप में माना जाता हैं. समर्थ रामदास ने बचपन से ही राम भक्ति में जुड़ गए थे. जिसके बाद उन्होंने शिवाजी के साम्राज्य में हिन्दू धर्मं में प्रचार-प्रसार किया. दक्षिण भारत के उन्हें प्रत्यक्ष भगवान हनुमान का अवतार मानकर पूजा जाता हैं. उन्होंने कई पुस्तकों को लेखन लिया था. जिसमे से प्रमुख पुस्तक “दासबोध” हैं जो कि मराठी भाषा में लिखी गयी हैं. समर्थ रामदास के समाधी दिवस को “दास नवमी” के रूप में मनाया जाता हैं.
बिंदु(Points) | जानकारी (Information) |
नाम (Name) | समर्थ रामदास |
असल नाम (Real Name) | नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी |
जन्म (Birth) | 1608 |
मृत्यु (Death) | 1682 |
जन्म स्थान (Birth Place) | जालना गाँव (महाराष्ट्र) |
पिता का नाम (Father Name) | सूर्यजीपन्त |
माँ का नाम(Mother Name) | राणुबाई |
समर्थ रामदास का जन्म और परिवार (Samarth Ramdas Birth and Family)
समर्थ रामदास का जन्म राम नवमी के दिन सन 1608 को महाराष्ट्र के जालना गाँव में ब्राह्मण परिवार में हुआ. उनके पिता का नाम सूर्यजीपन्त और माँ का नाम राणुबाई था. समर्थ रामदास का असल नाम ‘नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी’ था. उनके पिताजी सूर्य देव के उपासक थे और नगर पटवारी के रूप में गाँव में काम किया करते थे. ब्राह्मण परिवार से होने के कारण पिता सूर्यजीपन्त का ज्यादातर समय पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों में ही बिताता था. इस तरह नारायण (समर्थ रामदास) को हिन्दू धर्म की शिक्षा बचपन में परिवार से ही मिल गयी थी. परिवार में पिता पुत्र के अलावा माता राणुबाई और ज्येष्ठ भाई गंगाधर भी थे.
समर्थ रामदास का बचपन (Samarth Ramdas Childhood)
नारायण (समर्थ रामदास) बचपन में बेहद शरारती थे. दिनभर गाँव में घूमते-फिरते और खेलते रहते थे. एक बार उनकी माता उनको डांट फटकार कर कहती हैं कि “तुम दिनभर इतनी शरारत करते रहे हो, अपने बड़े भाई से सीखो और कुछ काम किया करो”. माँ की यह बात नारायण के मन में घर कर गयी और अगले दिन से ही उन्होंने ध्यान लगाना शुरू किया.
अगले दिन जब माँ राणुबाई ने नारायण को घर के आस-पास शरारत करते नहीं पाया तो वह व्याकुल हो उठी माँ और भाई गाँव में नारायण को ढूंढने निकले. पूरा दिन ढूंढने के बाद भी नारायण का पता नहीं चला. जब थक हार कर वह घर नारायण के कमरे पहुंचे, तब उन्होंने नारायण को ध्यान मुद्रा में पाया. उन्होंने नारायण से पूछा वह दिनभर कहाँ था?. नारायण कहते हैं, “वह दिनभर औरों की चिंता करने के लिए ही ध्यान लगा कर बैठे थे.”
उस दिन के बाद से ही नारायण की जीवनचर्या पूरी तरह से परिवर्तित हो गयी. वह लोगों को स्वास्थ्य और धर्म संबंधी ज्ञान देने लगे. उन्होंने युवाओं के यह बताया कि युवा उर्जा से ही मजबूत राष्ट्र की स्थापना की जा सकती हैं. उन्होंने जगह-जगह व्यायाम एवं कसरत करने के लिए व्यायामशाला की स्थापना की एवं हनुमान जी की मूर्ति लगाकर नियमित पूजा करने की सलाह दी.
समर्थ रामदास का गृहत्याग
12 साल की उम्र में नारायण के माता-पिता उनका विवाह करा देना चाहते थे लेकिन वह इस विवाह से बिलकुल भी खुश नहीं थे. वह जानते थे कि उन्हें कहाँ जाना हैं. विवाह के दिन वह मंडप से भाग गए जिसके बाद वह कभी भी घर वापस नहीं गए. महाराष्ट्र के नासिक के पास टाकली नामक स्थान को उन्होंने अपना तापोस्थान चुना और 12 वर्षों तक मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम की पूजा अर्चना में लगे रहे. उस समय वह खुद को राम का दास बताते थे इसी कारण उनका नाम “रामदास” पड गया.
12 वर्ष तक कठिन तपस्या करने के बाद उन्हें भगवान राम के साक्षात्कार हुए. जब उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुए तब उनकी आयु मात्र 24 वर्ष थी. जिसके बाद वह अगले बारह वर्ष के लिए भारत भ्रमण की यात्रा पर निकल पड़े.
समर्थ रामदास का भारत भ्रमण (Samarth Ramdas India Tour)
भारत भ्रमण के दौरान समर्थ रामदास की भेट सिखों के चौथे गुरु हरगोविन्दजी से श्रीनगर में होती हैं. गुरु हरगोविन्दजी जी उनको मुग़ल साम्राज्य में हो रही लोगों की दुर्दशा के बारे में बताते हैं. मुस्लिम शासकों के अत्याचार, आम जान की आर्थिक स्थिति को देखकर समर्थ रामदास का मन पसीज उठा. जिसके बाद उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति से बदलकर स्वराज्य स्थापना कर लिया. जिसके बाद वह पूरे भारतवर्ष में जनता को संगठित होकर शासकों के अत्याचार से मुक्ति प्राप्त करने के उपदेश देने लगे.
इस दौरान उन्होंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक कुल 1100 मठ और अखाड़ों की स्थापना की. जिसमे लोगों को खुद को सशक्त कर जुर्म और अत्याचार से बचने की शिक्षा दी जाती थी. उनके इसी उद्देश्य प्राप्ति के दौरान उनकी मुलाकात छत्रपति शिवाजी से हुई. छत्रपति रामदास के गुणों से बेहद प्रभावित हुए और उन्हें गुरु मानकर अपना पूरा मराठा राज्य दान कर दिया. रामदास शिवाजी से कहते हैं “यह राज्य न तुम्हारा हैं न ही मेरा. यह राज्य श्री राम का हैं. हम सिर्फ न्यासी हैं”.
रामदास की शिवाजी से इस मुलाकात के बाद शिवाजी ने उनके स्वराज्य स्थापना के स्वप्न को साकार किया और पूरे दक्षिण भारत तक मराठा साम्राज्य का विस्तार किया.
समर्थ रामदास की मृत्यु (Samarth Ramdas Death)
गुरु रामदास ने अपने जीवन के अंतिम क्षण मराठा साम्राज्य के सातारा के पास परली के किले बिताये. इस किले को अब सज्जनगढ़ के किले नाम से भी जाना जाता हैं. तमिलनाडु के एक अंध कारीगर अरणिकर के हाथो से निर्मित भगवान राम, सीता और लक्ष्मण की मृति के सामने ही रामदास ने पांच दिन का निर्जला उपवास किया और पूर्व सूचना देकर सन 1682 की माघ माह की शुक्ल पक्ष की नवमी को ब्रह्मसमाधी में लीन हो गए. समाधी के समय उनकी आयु 73 वर्ष थी.
ब्रह्मसमाधी के स्थान पर ही सज्जनगढ़ में उनकी समाधी स्थित हैं. उनके निर्वाण दिवस को दास नवमी के रूप में मनाया जाता हैं. हर वर्ष इस दिन लाखों श्रद्धालु देश के कोने-कोने से यहाँ पहुँचते हैं और दर्शन करते हैं.
वसिष्ठा परी ज्ञान योगीश्वराचे ॥
कवी वाल्मिकी सारिखा मान्य ऐसा।
नमस्कार माझा सद्गुरु रामदासा॥
समर्थ रामदास की रचनाये (Samarth Ramdas Books)
समर्थ रामदास ने कुल तीन प्रकार के ग्रंथों रचना है जिसके नाम कुछ इस प्रकार हैं.
- दासबोध
- आत्माराम
- मनोबोध
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