सूरदास की जीवनी, इतिहास, रचनाएँ और उनसे जुडी कहानियाँ | Krishna Devotee Surdas Biography, History, Poetry and Stories Related to Him in Hindi
हिंदी भाषा का इतिहास लगभग दो हजार साल पुराना हैं इसी कारण इसे कालों में बांटा गया हैं. हिंदी भाषा में मुख्य रूप से चार काल हैं.
- आदिकाल (743 ई से 1343 ई)
- भक्तिकाल (1343 से 1643 ई.)
- रीतिकाल (1643 से 1843 ई.)
- आधुनिक काल (1843 से अब तक)
सूरदास भक्ति काल के मुख्य कवि माने जाते हैं. उनकी रचनाएँ वात्सल्य रस से ओतप्रोत हैं. सूरदास भक्तिकाल के सगुण धारा (ईश्वर की आकृति पर विश्वास रखने वाले) के कवि थे. वह भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे. उन्होंने अपनी रचनाओं में भगवान श्री कृष्ण का श्रृंगार और शांत रस में बेहद ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया हैं.
सूरदास से जुडी जानकारी (Fact About Surdas)
बिंदु(Points) | जानकारी (Information) |
---|---|
नाम (Name) | सूरदास |
जन्म (Birth) | 1478 ईस्वी |
मृत्यु (Death) | 1580 ईस्वी |
जन्म स्थान (Birth Place) | रुनकता |
कार्यक्षेत्र (Profession) | कवि |
रचनायें (Poetry) | सूरसागर, सूरसारावली,साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो |
पिता का नाम (Father Name) | रामदास सारस्वत |
गुरु (Teacher) | बल्लभाचार्य |
पत्नी का नाम(Wife Name) | आजीवन अविवाहित |
भाषा(Language) | ब्रजभाषा |
सूरदास का जन्म (Surdas Birth)
सूरदास के जन्म और मृत्यु दोनों को लेकर हिंदी साहित्य में द्वन्द हैं. इसीलिए इनके जन्म के बारे में प्रमाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता हैं. ज्यादातर इतिहासकारों के अनुसार सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता,किरोली नामक गाँव में हुआ था. सूरदास जन्मांध थे यानी जन्म के समय से ही अंधे. लेकिन उनकी रचनाओं में जिस तरह से वर्णन मिलता हैं. उससे उनके जन्मांध होने पर भी मतभेद हैं.
चौरासी वैष्णव की वार्ता’ के अनुसार सूरदास का जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरा) में हुआ था जबकि “भावप्रकाश’ में सूरदास का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है. विद्वानों के अनुसार सूरदास का जन्म एक गरीब सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था जो कि मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर निवास करते थे.
सूरदास के पिता का नाम रामदास था और वह एक गायक थे. सूरदास का बचपन गऊघाट पर ही बिता.
सूरदास का शिक्षा (Surdas Education)
गऊघाट पर ही उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई. बाद में वह इनके शिष्य बन गए. श्री वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर कृष्ण भक्ति की ओर अग्रसर कर दिया. सूरदास और उनके गुरु वल्लभाचार्य के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी हैं कि सूरदास और उनकी आयु में मात्र 10 दिन का अंतर था.
वल्लभाचार्य का जन्म 1534 विक्रम संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था. इसी कारण सूरदास का जन्म 1534 विक्रम संवत् की वैशाख् शुक्ल पंचमी के समकक्ष माना जाता हैं.
सूरदास की कृष्ण भक्ति (Krishna Bhakti aur Surdas)
वल्लभाचार्य से शिक्षा लेने के बाद सूरदास पूरी तरह कृष्ण भक्ति में लीन हो गए. सूरदास ने अपनी भक्ति को ब्रजभाषा में लिखा. सूरदास ने अपनी जितनी भी रचनाएँ की वह सभी ब्रजभाषा में की. इसी कारण सूरदास को ब्रजभाषा का महान कवि बताया गया हैं. ब्रजभाषा हिंदी साहित्य की ही एक बोली हैं जो कि भक्तिकाल में ब्रज श्रेत्र में बोली जाती थी. इसी भाषा में सूरदास के अलावा रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि का योगदान हिंदी साहित्य में हैं.
सूरदास की रचनाएँ (Surdas Poetry)
हिंदी साहित्य में सूरदास द्वारा रचित मुख्य रूप से 5 ग्रंथों का प्रमाण मिलता हैं.
सूरसागर(Sursagar)
यह सूरदास द्वारा रचित सबसे प्रसिद्द रचना हैं. जिसमे सूरदास के कृष्ण भक्ति से युक्त सवा लाख पदों का संग्रहण होने की बात कही जाती हैं. लेकिन वर्तमान समय में केवल सात से आठ हजार पद का अस्तित्व बचा हैं. विभिन्न-विभिन्न स्थानों पर इसकी कुल 100 से भी ज्यादा प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुयी हैं.
सूरदास के इस ग्रन्थ में कुल 12 अध्यायों में से 11 संक्षिप्त रूप में व 10वां स्कन्ध बहुत विस्तार से मिलता हैं. इसमें भक्तिरस की प्रधानता हैं. दशम स्कंध को भी दो भाग दशम स्कंध (पूर्वार्ध) और दशम स्कंध (उत्तरार्ध) में बांटा गया हैं. सूरसागर की जितनी भी प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुयी हैं वह सभी 1656 से लेकर 19वीं शताब्दी के बीच तक की हैं. इन सब में सबसे प्राचीन प्रतिलिपि मिली हैं वह राजस्थान के नाथद्वारा के सरस्वती भण्डार से मिली हैं.
आधुनिक काल के प्रमुख कवि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सूरसागर के बारे में कहा हैं कि “काव्य गुणों की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौन्दर्य है. वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में घुलमिल गया है.”
सूरसारावली(Sursaravali)
सूरदास के सूरसारावली में कुल 1107 छंद हैं. इस ग्रन्थ की रचना सूरदास ने 67 वर्ष की उम्र में की थी. यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक “वृहद् होली” गीत के रूप में रचित है.
साहित्य-लहरी (Sahitya-Lahri)
साहित्यलहरी सूरदास की 118 पदों की एक लघुरचना हैं. इस ग्रन्थ की सबसे खास बात यह हैं इसके अंतिम पद में सूरदास ने अपने वंशवृक्ष के बारे में बताया हैं जिसके अनुसार सूरदास का नाम “सूरजदास” हैं और वह चंदबरदाई के वंशज हैं. चंदबरदाई वहीँ हैं जिन्होंने “पृथ्वीराज रासो” की रचना की थी. साहित्य-लहरी में श्रृंगार रस की प्रमुखता हैं.
नल-दमयन्ती(Nal-Damyanti)
नल-दमयन्ती सूरदास की कृष्ण भक्ति से अलग एक महाभारतकालीन नल और दमयन्ती की कहानी हैं. जिसमे युधिष्ठिर जब सब कुछ जुएँ में गंवाकर वनवास करते हैं तब नल और दमयन्ती की यह कहानी ऋषि द्वारा युधिष्ठिर को सुनाई जाती हैं.
ब्याहलो(Byahlo)
ब्याहलो सूरदास का नल-दमयन्ती की तरह अप्राप्य ग्रन्थ हैं. जो कि उनके भक्ति रस से अलग हैं.
सूरदास का अंधत्व (Story of Surdas Blindness)
इतिहास में सूरदास की रचनाओं की तरह उनके अंधत्व के बारे में भी बहुत चर्चा होती हैं. श्रीनाथ भट की “संस्कृतवार्ता मणिपाला’, श्री हरिराय कृत “भाव-प्रकाश”, श्री गोकुलनाथ की “निजवार्ता’ आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्मांध (जन्म के अन्धे) माने गए हैं.
लेकिन सूरदास ने जिस तरह राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के साथ किया हैं. वह किसी भी जन्मांध के लिए करना लगभग असंभव लगता हैं इसीकारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते.
डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार “सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए.”
श्यामसुन्दर दास ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता. इसके अलावा बहुत सारी लोक कथाओं में भी सूरदास के अंधत्व से जुडी कहानियाँ हैं जो कि उनके जन्मांध होने को प्रमाणिक नहीं करती.
सूरदास से जुडी एक लोककथा(Related Stories with Surdas)
सूरदास से जुडी बहुत सारी कहानियाँ लोक कथाओं में मिलती हैं जिनमे से प्रमुख रूप से एक कहानी सुनने को मिलती हैं जो कि कुछ इस प्रकार हैं.
“मदनमोहन नाम का एक बहुत ही सुन्दर और तेज बुद्धि का नवयुवक था. वह हर दिन नदी के किनारे जाकर बैठ जाता और गीत लिखता. एक दिन उस नवयुवक ने एक सुन्दर नवयुवती को नदी किनारे कपडे धोते हुए देखा. मदनमोहन का ध्यान उसकी तरफ चला गया उस युवती ने मदनमोहन को ऐसा आकर्षित किया कि वह कविता लिखने से रुक गया तथा पूरे ध्यान से उस युवती को देखने लगा.
उसको ऐसा लगा मानो यमुना किनारे राधिका स्नान करके बैठी हो. उस नवयुवती ने भी मदनमोहन की तरफ देखा. देखते ही देखते बातों का सिलसिला चल पड़ा. जब यह बात मदन मोहन के पिता को पता चली तो उनको बहुत क्रोध आया. जमकर विवाद हुआ और मदन मोहन ने घर छोड़ दिया लेकिन उस सुन्दर युवती का चेहरा उनके सामने से नहीं जा रहा था एक दिन वह मंदिर मे बैठे थे तभी एक शादीशुदा महिला मंदिर में आई. मदनमोहन उसी के पीछे चल दिया.
जब वह उसके घर पहुंचा तो उसके पति ने दरवाजा खोला तथा पूरे आदर समान के साथ उन्हें अंदर बिठाया. फिर मदनमोहन ने दो जलती हुए सिलाया मांगी तथा उसे अपनी आँख में डाल दी. उस दिन महान कवि सूरदास का जन्म हुआ.
सूरदास की मृत्यु (Surdas Death Story)
एक समय सूरदास के गुरु आचार्य वल्लभ, श्रीनाथ जी और गोसाई विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती के समय सूरदास को अनुपस्थित पाया. सूरदास कभी भी श्रीनाथ जी की आरती नहीं छोड़ते थे. अनुपस्थित पाकर उनके गुरु समझ गए उनका अंतिम समय निकट आ गया हैं. पूजा करके गोसाई जी रामदास, कुम्भनदास, गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास सूरदास की कुटिया पहुंचे. सूरदास अपनी कुटिया में अचेत पड़े हुए थे.
सूरदास ने गोसाई जी का साक्षात् भगवान के रूप में अभिनन्दन किया और उनकी भक्तवत्सलता की प्रशंसा की. चतुर्भुजदास ने इस समय शंका की कि सूरदास ने भगवद्यश तो बहुत गाया, परन्तु आचार्य वल्लभ का यशगान क्यों नहीं किया.
सूरदास ने बताया कि उनके निकट आचार्य जी और भगवान में कोई अन्तर नहीं है, जो भगवद्यश है, वही आचार्य जी का भी यश है. गुरु के प्रति अपना भाव उन्होंने “भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो” वाला पद गाकर प्रकट किया. इसी पद में सूरदास ने अपने को “द्विविध आन्धरो” भी बताया. गोसाई विट्ठलनाथ ने पहले उनके ‘चित्त की वृत्ति’ और फिर ‘नेत्र की वृत्ति’ के सम्बन्ध में प्रश्न किया तो उन्होंने क्रमश: ‘बलि बलि बलि हों कुमरि राधिका नन्द सुवन जासों रति मानी’ तथा ‘खंजन नैन रूप रस माते’ वाले दो पद गाकर सूचित किया कि उनका मन और आत्मा पूर्णरूप से राधा भाव में लीन है. इसके बाद सूरदास ने शरीर त्याग दिया.
सूरदास की मृत्यु संवत् 1642 विक्रमी (1580 ईस्वी) को गोवर्धन के पास पारसौली ग्राम में हुई. पारसौली वहीँ गाँव हैं जहाँ पर भगवान् कृष्ण अपनी रासलीलायें रचाते थे. सूरदास ने जिस जगह अपने प्राण त्यागे उस जगह आज एक सूरश्याम मंदिर (सूर कुटी) की स्थापना की गयी हैं.
इसे भी पढ़े:
- भगवान कृष्ण के नीले और काले दर्शाये जाने के पीछे का रहस्य
- कैसे खत्म हुआ श्रीकृष्ण सहित पूरा यदुवंश?
- कुरुक्षेत्र को ही क्यों चुना श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के लिए ?
Super
Kon si kabi mane jate hai
Mahankavi
Bhut mast
बहुत बढ़िया लेख है लेख लाइक के काबिल है धन्यवाद
Mast