भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान और इतिहास में नारी से जुड़े कुछ सत्य प्रसंग

भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान और उससे जुड़ी कहानियाँ

कहावत है कि – ‘सभी समस्याओं की जड़ – जर (धन), जोरू (पत्नी), जमीन (संपत्ति) है’। ये तीनों शब्द ‘जर, जोरू, जमीन’ उर्दू भाषा के है। उर्दू भाषा अरब की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है, ना कि भारतीय संस्कृति का।

भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान और उससे जुड़ी कहानियाँ

इसके साथ ही पश्चिम में ‘ओरिजिनल सिन या पहले पाप’ की भी एक अवधारणा (कन्सेप्ट) है। इसके अनुसार, ईश्वर ने पहले मानव-जोड़े ‘एडम-ईव (ईसाइयत), या आदम-हव्वा (ईस्लाम)’ से एक निषिद्ध पेड़ का फल नही खाने को कहा था। लेकिन नाग के रुप में आए शैतान के बहकावे में आकर ईव ने निषिद्ध फल (फॉरबिडन फ्रुट) खा लिया और एडम को भी खिला दिया। इस ‘पाप/सिन’ के लिए ईश्वर ने एडम-ईव से आजीवन की आरामदायक जिंदगी छिन ली और उन्हें दुख, तकलीफों व परिश्रम के साथ जीवन जीने का दंड दिया। यहां क्योंकि ‘पहला पाप/ओरिजीनल सिन’ पहली-स्त्री ईव ने किया था, इसीलिए पश्चिमी संस्कृति में उन्हें पुरी मानवजाति की दुख-तकलीफों की शुरुवात करने वाली ‘प्रथम-पापिन’ माना गया है।

इस सब के विपरित, भारतीय संस्कृति में ‘जोरू’ को ‘गृह लक्ष्मी’ कहा जाता है, ना कि ‘परेशानियों की जड़’।

हमारी संस्कृति

प्राचीन भारतीय ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ में लिखा है कि :-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।।

  • मनुस्मृति

इस श्लोक का अर्थ – जहां घर की स्त्रियों (गृहलक्ष्मी) को पूजा जाता है, उनका सम्मान-सत्कार किया जाता है, वहां देवताओं की कृपा रहती है। ऐसे घर में सुख-समृद्धि व दिव्यता बनी रहती है। जहां घर की स्त्रियों का सम्मान नहीं होता वहां सभी कार्य-क्रियाएं निष्फल रहती है। वहां कोई काम नहीं बनता।

यहां गृहलक्ष्मी से तात्पर्य माता, बहनें, भाभी, पुत्री और विशेषकर धर्मपत्नी से है। अर्थात वे स्त्रियां जिनकी दशा व कार्य का सीधा प्रभाव व्यक्ति पर पड़ता है, साथ ही व्यक्ति के कार्य व दशा का जिन स्त्रियों पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

हमारी संस्कृति में ‘परस्त्रीगमन’ या ‘पर-स्त्री के प्रभाव में बुद्धि आने’ को ‘नर्क का द्वार या समस्याओं की जड़’ बताया गया है, वहीं ‘गृहलक्ष्मी’ को सम्मानित व प्रसन्न करना घर की सुख-समृद्धि के लिए आवश्यक बताया गया है।

अंग्रेजी की यह कहावत कि ‘Behind every successful man, there is a Woman (बिहाइंड एवरी सक्सेसफुल मैन, देयर इज़ अ वूमन = हर सफल आदमी की सफलता के पीछे एक औरत का हाथ होता है)’ के पीछे भी कहीं ना कहीं यही भाव छुपा है।

हमारी संस्कृति में विद्या के ईश्वर को स्त्री रुप ‘माता सरस्वती’ के रुप मे पुजा जाता है, धन के ईश्वर को एक स्त्री रुप में ‘माता लक्ष्मी’ के रुप मे पुजा जाता है, शक्ति के ईश्वर को एक स्त्री रुप में ‘माता दुर्गा’ के रुप में पुजा जाता है। हमारी संस्कृति में ‘भगवान’ व ‘भगवती (भगवान शब्द का स्त्रीलिंग)’ दोनों की ‘समान’ पूजा होती है।

स्त्री को सुख-समृद्धि व शुभता का माध्यम मानने की व अरबियों-पश्चिमियों की तरह उन्हें समस्याओं की जड़ नही मानने की, हमारी इसी सांस्कृतिक विचारधारा को रेखांकित करने हेतु हमारे वर्तमान भारतीय प्रधानमंत्री ने कुछ समय पहले ‘भारत की लक्ष्मी’ अभियान चलाया था। इस अभियान को देश में भरपुर समर्थन मिला था।

भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान और उससे जुड़ी कहानियाँ

रामायण युद्ध का कारण – दयाहीन-दानव पापी रावण

‘राम’ अपने उन कर्मो से ‘भगवान श्री राम’ बने, जो उन्होने अपने माता-पिता व अपनी स्त्री (धर्मपत्नी/गृहलक्ष्मी) के प्रति कर्तव्य व निष्ठा स्वरुप किए थे। श्री लक्ष्मण भी महापुरुष इसलिए हुए क्योंकि उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ अपनी भाभी के प्रति भी अपने सभी कर्तव्यों का निष्ठापुर्वक निर्वहन किया।

रावण राक्षस और पापी इसलिए हुआ क्योंकि उसने निर्दयिता से कई अपराध किये थे जिनमें से एक अपराध या अंतिम अपराध महासती सीता (परस्त्री) के हरण का था।

पापी रावण और उसके वंश के सर्वनाश के कई कारण थे, इनमें से एक, उसके द्वारा अपनी धर्मपत्नी मंदोदरी का तिरस्कार करना व उसकी सलाह की अनदेखी करना भी था।

रावण व उसके कुल के सर्वनाश और रामायण युद्ध का मुख्य कारण तो स्वयं पापी रावण ही था।

उसके दुर्गुण ‘अहंकार, क्रुरता व परस्त्रीगमन’ उसके पतन के कारण बने। वह भगवान श्री राम को सामान्य मानव मानता रहा, जिनके एक दूत ने अकेले उसके गढ़ में घुसकर, उसका पुरा गढ़ ध्वस्त कर डाला था। वहीं उसने साधु-संतों से क्रुरतापुर्वक कर-वसुली रुप में रक्त लिया, देवता कुबेर की पुत्रवधु समेत कई स्त्रियों पर अत्याचार किया। कुबेर की पुत्रवधु ने रावण को श्राप दिया था कि वह किसी स्त्री के साथ अनुचित कार्य की चेष्टा करेगा तो उसके मस्तक के टुकड़े हो जाएंगें, इसी कारण उसे माँ सीता के अपहरण पर ही रुकना पड़ा था।

महाभारत युद्ध का कारण – द्वेषी-ईर्ष्यालु पापी दुर्योधन

कई लोग महाभारत युद्ध का कारण सती द्रौपदी द्वारा किये गए उपहास ‘अंधे का पुत्र अंधा’ को मानते है। वहीं कई लोग सती द्रौपदी के चीरहरण को महाभारत युद्ध का प्रमुख कारण मानते हैं। ये दोनों बातें सही नहीं लगती।

सती द्रौपदी से विवाह के बहुत पहले, बचपन में, भीम की विष द्वारा हत्या का प्रयास दुर्योधन ने किया था।

सती द्रौपदी से विवाह के पुर्व ही, लाक्षागृह में दुर्योधन ने पांडवों सहित ‘माता कून्ती की हत्या’ का प्रयास किया था।

यदि सती द्रौपदी का चीरहरण, युद्ध का कारण होता, तो भगवान श्री कृष्ण शांतिदूत बनकर 5 गांव की मांग रखते ही नहीं।

और रही बात सती द्रौपदी द्वारा दुर्योधन के उपहास की, तो, ये उपहास की बात पुर्णत: असत्य व काल्पनिक है, सती द्रौपदी ने कभी नही कहा था ‘अंधे का पुत्र अंधा’। यह ‘महाभारत का कारण सती द्रौपदी’ का दुष्प्रचार, भारत पर अरबी व पश्चिमी संस्कृति थोपने के सुनियोजित षड़यंत्र का भाग प्रतीत होता है। बीआर चोपड़ा जी का प्रसिद्ध महाभारत (1988) धारावाहिक भी इस दुष्प्रचार का शिकार हुआ है। सती द्रौपदी के उपहास करने की बात को असत्य बताते हुए श्री गोविंददेव गिरिजी महाराज नामक संत ने अपनी कही बात को गलत सिद्ध करने की चुनौती भी दी थी।

इसके साथ ही, यह भी दुष्प्रचार मात्र है कि सती द्रौपदी ने बीच स्वयंवर में कर्ण को उसके वर्ण के कारण अपमानित किया था। स्वयंवर के आरंभ के पुर्व ही, आज की परिक्षाओं की तरह, ये शर्त पहले ही रख दी गई थी कि स्वयंवर में भाग लेने के लिए प्रतिभागी का ‘गुणों के साथ जन्म से भी क्षत्रिय होना’ अनिवार्य है। इसप्रकार स्वयंवर में भाग लेकर केवल गुण-आधारित क्षत्रिय कर्ण ने गलती की थी, इसमें सती द्रौपदी की कोई गलती नही थी। स्वयं विचारे कि किसी को ट्रैफिक नियम का उल्लंघन करते पुलिस पकड़ ले, तो इसमें ‘पुलिस’ की गलती या ‘नियम तोड़ने वाले’ की गलती?

महाभारत युद्ध के कई कारण थे, पर महाभारत युद्ध का मुल-मुख्य कारण तो स्वयं दुर्योधन ही था।

दुर्योधन के मन के ‘ईर्ष्या’ व ‘द्वेष’ के चलते उसे तो पांडवों के अस्तित्व से – उनके ‘होने’ से ही परेशानी थी, वो उन्हें 5 गांव क्या 1 इंच भूमि देने को तैयार नही था।

समाज व परिवार की समस्याओं-संकटों को दूर करने वाली महान महिलाएं

भारत में महान ज्ञानी व पराक्रमी स्त्रियों के कई उदाहरण हैं, जिन्होंने महान कार्यों का संपादन किया है और समाज-परिवार की समस्याओं को दूर किया है।

आज से 900 साल पहले चोल साम्राज्य की नौसेना में महिलाओं की प्रमुख भुमिका, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, गोंदवानों की रानी दू्र्गावती, कर्नाटक की रानी कित्तुर चिनम्मा, राजमाता पद्मावती और रानी अहिल्याबाई होलकर आदि तो अभी मध्यकाल व आधुनिक काल की वीरांगनाओं के उदाहरण है। प्राचीन काल में भी हमारे देश में कई महान स्त्रियां हुई है।

प्राचीन काल में माता दुर्गा ने दानव महीषासुर का वध कर उसके अत्याचार से समाज को मुक्त किया था।

‘महाकवि’ कालिदास को शिक्षित उनकी धर्मपत्नी ने किया था। ये वही ‘जड़-मति’ कालीदास थे जो उसी डाल को काट रहे थे जिस पर वह बैठे थे।

युद्ध में राजा दशरथ के घायल होने के पश्चात, माता कैकयी ने रथ चलाने का अद्भुत कौशल दिखाया था। इसी कार्य के फलस्वरुप उन्हें राजा दशरथ ने तीन वरदान देने का वचन दिया था।

राक्षस नरकासुर के वध में भगवान कृष्ण का उनकी धर्मपत्नी माता सत्यभामा ने साथ दिया था और प्रचंड युद्ध किया था।

निष्ठा

मिट्टी का घड़ा कहे कि मुझे बनाने वाली मिट्टी खराब थी, तो इससे उसका खराब होना स्वतः सिद्ध हो जाता है।

उसी प्रकार जिन तत्वों से हम बने है, हमारे द्वारा उनका तिरस्कार, हमारे द्वारा ‘स्वयं को तिरस्कार योग्य बताना’ है।

अतएव, अपनी जड़ो से जुड़े रहे। जिस प्रकार हम सभी के माता-पिता का सम्मान करते है पर विशेष सम्मान और अनुसरण अपने माता-पिता का करते है, वैसे ही सभी की संस्कृति का सम्मान करे पर अपनी संस्कृति का विशेष सम्मान और अनुसरण करे।

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