भारतीय संसद क्या है? संसद में चर्चा कैसे होती है? संसद का उद्देश्य, चर्चा की समयसीमाम चर्चा का निर्णय | What is Parliament? How is discussion in Parliament? Purpose of Parliament, discussion deadline, discussion decision
भारतीय संसद में द्विसदनीय व्यवस्था है. भारतीय संसद में राष्ट्रपति तथा दो सदन होते है. लोकसभा जो लोगों का सदन होता है एवं राज्यसभा जो राज्यों का परिषद् होता है. राष्ट्रपति के पास संसद के दोनों में से किसी भी सदन को बुलाने या स्थगित करने अथवा लोकसभा को भंग करने की शक्ति होती है. भारतीय संसद का संचालन नई दिल्ली स्थित ‘संसद भवन’ में होता है.
लोक सभा में देश की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिनकी अधिकतम संख्या 550 है, राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसमें अधिकतम सदस्य संख्या 250 होती है. वर्तमान मे लोकसभा के सदस्यों की संख्या 543 है तथा राज्यसभा के सदस्यों की संख्या 245 है.
इस लेख में जानते है भारतीय संसद में चर्चा कैसे होती है?
1. परिचय
संसद (भारतीय विधायिका) का कोई सदस्य/जनप्रतिनिधि किसी नियमावली (विधेयक/कानुन) को देश में लागु करने का प्रस्ताव रखता हैं!
उस नियमावली के पक्ष-विपक्ष में बारी-बारी से जनप्रतिनिधि तय समय में अपने तर्क-तथ्य रखते हैं!
कुछ जनप्रतिनिधि नियमावली में कुछ बदलावों का भी प्रस्ताव रखतेे हैं! उस पर भी तर्क-वितर्क होता है!
2. चर्चा में असहमति
दुनिया में हर एक की धरातल की वास्तविकता अलग होती है, दो जुड़वा भाइयों द्वारा देखी-सुनी गई चीज़े और उनपर उनकी प्रतिक्रियाएं भी एक समान नही होतीं, फलस्वरुप राय (दृष्टिकोण) अलग-अलग होना स्वाभाविक है।
जैसे ‘शेयर बाजार’ मे ‘असहमति’ रहती है, कुछ लोग कि राय ‘बेचने’ की और कुछ लोगों की राय ‘खरीदने’ की रहती हैं, वैसे ही किसी विषय पर लोगों की अलग-अलग राय (दृष्टिकोण) रहती है, पर इससे वे शत्रु नही हो जाते!
लेकिन अभिव्यक्ति/बोलने में मर्यादा लांघना सर्वथा अनुचित है! प्रसिद्ध टीवी पत्रकार अदिती त्यागी का एक कथन इस संदर्भ में सटीक बैठता है – तर्कों से खाली, तो भाषाई कंगाली!
3. संसद में चर्चा का उद्देश्य
हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह में ‘सत्यमेव जयते’ का उपदेश है। पुर्ण सत्य तक पहुंचना सामान्यत: असंभव होता है। इसलिए चर्चा का उद्देश्य, सत्य के सबसे शुद्ध रुप, सत्य के सबसे परिष्कृत रुप तक पहुंचना होता है, ताकि सत्य पर चलकर देश-समाज विजय हो।
साथ ही, चर्चा का उद्देश्य तथ्यों-तर्कों के माध्यम से ‘व्यक्ति की एक राय/दृष्टिकोण को गलत’ सिद्ध करना होता है, ‘व्यक्ति को ही गलत’ सिद्ध करना नही होता है।
4. चर्चा की समयसीमा
हम सबके पास एक बार में निर्धारित समय ही होता है, एक डेडलाइन या समयसीमा होती है, अनंत समय किसी के पास नही होता है। हालांकि, जनता-जनार्दन की सेेवा के लिए बनी भारतीय न्याय व्यवस्था इसकी कुछ मायने में अपवाद है।
खैर, अमावस्या से पुर्णिमा या पुर्णिमा से अमावस्या का चक्र 15 दिन की प्राकृतिक समयसीमा में पुर्ण होता है। चंद्रमा पृथ्वी का एक चक्कर 30 दिन की निर्धारित समयसीमा में पुरा करता है। 24 घंटें की निर्धारित समयसीमा में पृथ्वी अपनी धूरी पर एक चक्कर पुर्ण करती हैं। पृथ्वी 365 दिन की निर्धारित समयसीमा में सूर्य की एक परिक्रमा पुर्ण करती है।
जीवन के आरंभ काल में, छात्र जीवन में, 3 घंटे बाद परिक्षा में भी बच्चे को उत्तर-पुस्तिका लौटानी पड़ती है, भले ही छुटे प्रश्न के उत्तर उसे आते हो। फिर बच्चा फैल हो जाए तो उसे अगली बार परिक्षा देने का अवसर मिलता है।
इस प्रकार, जीवन के हर क्षेत्र की तरह, संसद में चर्चा की भी एक तय समयसीमा होती है। समय के प्राकृतिक बंधन के अनुसार, संसद में एक निश्चित समय अवधि तक ही चर्चा होती है। किसी की कुछ बातें रखनी रह जाएं, या असहमती हो, तो अगली बार उस कानुन के संशोधन आदि में वह अपनी बात रख सकता है।
5. चर्चा पर निर्णय
चर्चा के नियत समय की समाप्ति के बाद नियमावली के प्रस्ताव व बदलावों के प्रस्तावों पर जनप्रतिनिधि वोटिंग करते हैं!
50% से अधिक वोट जब नियमावली के प्रस्ताव व बदलावों के प्रस्तावों के पक्ष में पड़ते हैं तब प्रस्ताव संसद से पास हो जाते है, अन्यथा संसद की असहमति के चलते प्रस्ताव गिर जाता है।
6. सारांश
इसप्रकार संसद में चर्चा/बहस/वाद-विवाद का तरीका यहा है कि –
1) एक प्रस्ताव रखा जाता है.
2) बारी-बारी सभी अपने-अपने तथ्य-तर्क प्रस्ताव पर अभिव्यक्त करें – बोलें,
3) फिर जनता-जनार्दन जिस पर मुहर लगा दें, उसको क्रियान्वित किया जाता है।
क्योंकि 130 करोड़ जनता का बार-बार किसी प्रस्ताव पर मुहर लगाना व्यवहारिक नही है, इसलिए जनता द्वारा भेजे गए जनप्रतिनिधि, ‘जनता के आदमी’, ‘जनता के आधिकारिक या ऑथोराइज्ड एम्प्योयी’ अर्थात सभी जनप्रतिनिधियों (पक्ष-विपक्ष) की मुहर को जनता की मुहर स्वीकार किया जाता है।
संसद में जिस ‘पार्टी’ की सीट-संख्या अधिक रहती है उसका संसद में वर्चस्व, उसकी सरकार रहना, ऐसा कहना उपरी-सतही बात है। संसद में उस ‘पार्टी’ की सीट-संख्या अधिक होती है, जिसके विचारों, विचारधाराओं, दृष्टिकोण, चिंतन, निर्णय-प्रक्रियाओं, से अधिकाधिक संख्या में जनता ‘सहमत’ होती हैं। इसप्रकार संसद में उन विचारों, विचारधाराओं, दृष्टिकोण, चिंतन का वर्चस्व होता है जिससे अधिकाधिक जनता ‘सहमत’ होती। और जो जनता चाहे वही हो, यही तो लोकतंत्र है। हालांकि, इस प्रक्रिया में उन विचारों, विचारधाराओं को भी स्थान मिलता है जिन से कम लोग ‘सहमत’ होते हैं। और सही व तर्कसंगत पाए जाने पर इन अल्पमत वाले विचारों को भी अमल में लाया जाता हैं।
आजकल सोशल मीडीया पर भी लोग खुब चर्चाएं, बहस, वाद-विवाद करते हैं। यह स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है। आखिर लोकतंत्र का अर्थ है कि जहां प्रत्येक आम-जन राजनीति करे, अन्यथा तानाशाही में तो कुछ गिनेचुने लोग ही राजनीति करते है। सोशल मीडीया पर भी राजनीतिक चर्चा की यही प्रक्रिया व्यवहारिक जान पड़ती है, सब अपने-अपने विचार रखें और चुनाव के समय जनता-जनार्दन अंतिम निर्णय सुना दें।
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