वीर दुर्गादास राठौड़ की वीरगाथा का इतिहास, जन्म, मृत्यु और कहानी | Veer Durgadas Rathore History(Birth, Battle, Death) and Story in Hindi
वीर दुर्गादास राठौड़ भारतभूमि के महान वीर योद्धाओं में से एक हैं. वीर दुर्गादास राठौड़ को आज भी उनके साहस, वीरता और पराक्रम को राठौर समाज द्वारा याद किया जाता हैं. उन्होंने मारवाड़ की धरती को मुगलों की दासता से छुड़वाने में अहम् भूमिका निभाई थी. तब दिल्ली की गद्दी पर औरंगजेब का शासन था. उन्हें महाराजा जसवन्त सिंह द्वारा “मारवाड़ का भावी रक्षक” की उपाधि से सम्मानित किया गया था. उनकी प्रशंसा में आज भी मारवाड़ में निम्न पंक्तियाँ प्रचलित हैं –
मार गण्डासे थामियो, बिन थाम्बा आकास
बिंदु(Points) | जानकारी (Information) |
नाम (Name) | वीर दुर्गादास राठौड़ |
जन्म (Birth) | 13 अगस्त 1638 |
पिता का नाम (Father Name) | श्री आसकरण |
माता का नाम (Mother Name) | नेतकँवर |
पद (Position) | महाराजा जसवंत सिंह के सेनापति |
वीर दुर्गादास राठौड़ की वीरगाथा (Veer Durgadas Rathore Story)
वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त 1638 (विक्रम सम्वत 1695 श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि) के दिन हुआ था. इनके पिता का नाम श्री आसकरण था. माता नेतकँवर थीं. इनके पिता जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह की सेना में सेनापति थे. वीर दुर्गादास राठौड़ अपने पिताजी की तरह ही पराक्रमी और वीर योद्धा थे. आसकरण की अन्य पत्नियां भी थी. दुर्गादास राठौड़ का लालन-पालन उनकी मां नेतकँवर ने ही किया और उनमें देश भक्ति और धार्मिक संस्कार डाले.
एक बार की बात है युवा अवस्था के समय दुर्गादास राठौर अपने खेतों की रखवाली कर रहे थे. तभी महाराजा जसवंत सिंह के चरवाहे ऊँटों को चराते-चराते दुर्गादास राठौर के खेत में आ गए. इस पर दुर्गादास राठौर ने उन चरवाहों से कहा कि वह अपने ऊँटों को बाहर निकाल ले क्योंकि उनके खेत की फसल खराब हो रही थी. परंतु चरवाहों ने दुर्गादास की बातों को अनदेखा कर दिया. फिर दुर्गादास राठौड़ ने उन चरवाहों को दंड दिया. जब महाराजा जसवंत सिंह को यह बात पता चली तो उन्होंने उस वीर बालक से मिलने की इच्छा व्यक्त की और उस बालक को दरबार में बुलाया. दुर्गादास राठौड़ ने महाराज के दरबार में पहुंच कर अपनी बात को निर्भयता से व्यक्त किया.
उस पराक्रमी युवा दुर्गादास राठौड़ की स्पष्टता को देख महाराजा जसवंत सिंह काफी प्रभावित हुए. इस दृश्य के दौरान दुर्गादास राठौड़ के पिता आसकरण जी भी वहीं पर मौजूद थे. महाराज जसवंत सिंह को जब यह बात पता चली कि यह बालक आसकरण जी का लड़का है. तो उन्होंने दुर्गादास राठौड़ को एक कृपाण भेंट की. और उसी दिन से दुर्गादास राठौड़ महाराज जसवंत सिंह के विश्वासपात्र और स्वामी भक्त व्यक्ति बन गए.
जसवंत सिंह जी उस समय दिल्ली के सम्राट औरंगजेब के सेनापति थे. औरंगजेब यह चाहता था कि वह पूर्ण रूप से अजमेर पर अपना शासन स्थापित कर ले. परंतु जसवंत सिंह की मृत्यु के बिना यह संभव नहीं हो सकता था. इसलिए औरंगजेब ने षड्यंत्र पूर्वक जसवंत सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने के लिए भेज दिया. इस युद्ध के दौरान नवंबर 1678 में जसवंत सिंह की मृत्यु हो गई. इस युद्ध पर महाराज जसवंत सिंह के साथ दुर्गादास राठौड़ भी गए थे.
जसवंत सिंह का कोई भी पुत्र नहीं था. औरंगजेब इसी मौके का फायदा उठाकर अजमेर पर शासन करना चाहता था परंतु महाराजा जसवंत सिंह की दोनों पत्नियां गर्भवती थी. दोनों पत्नियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया था परंतु दुर्घटना वश एक पुत्र का जन्म के समय ही निधन हो गया. एक और पुत्र हुआ जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया.
इस दौरान औरंगजेब ने जोधपुर सियासत पर अपना आधिपत्य कर वहां शाही हकीम को बिठा दिया. औरंगजेब अजीत सिंह को भी मारना चाहता था क्योंकि वह यह नहीं चाहता था कि भविष्य में अजमेर का राजकुमार अजीत सिंह राजदरबार संभाले. इसके लिए औरंगजेब ने अजीत सिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के लिए दिल्ली आने का निमंत्रण दिया. वीर दुर्गादास औरंगजेब की इस षड्यंत्र से भली-भांति परिचित थे.
इस तरह दुर्गादास राठौड़ ने अजीत सिंह को युवावस्था तक इस तरह के कई षड्यंत्र से बचाया और फिर अजीत सिंह को अजमेर का राजभार सौंप दिया. इस दौरान उन्होंने मारवाड़ के सामंतो के साथ मुगल सेनाओं पर छापामार हमले करना शुरू करें. उन्होंने महाराजा राजसिंह और मराठों को भी अपने इस कार्य में जोड़ना चाहा परंतु कुछ कारणों से वे उनके साथ नहीं आए. उन्होंने औरंगजेब के छोटे पुत्र अकबर को भी राजा बनाने का लालच दिया और अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए तैयार किया. परंतु उनकी यह योजना भी सफल नहीं हो पाई.
वीर दुर्गादास राठौड़ की मृत्यु (Veer Durgadas Rathore Death)
अपने जीवन के अंतिम दिनों में दुर्गादास राठौड़ को मारवाड़ की धरती से जाना पड़ा. महाराजा अजीत सिंह के ही कुछ लोगों ने दुर्गादास राठौड़ के खिलाफ कान भर दिए थे. जिससे महाराज अजीत सिंह दुर्गादास राठौर से घृणा करने लगे. जिसके बाद महाराज अजीत सिंह ने दुर्गादास राठौड़ की मृत्यु का षड्यंत्र रचा. परंतु अजीत सिंह उसमें असफल हो गए. दुर्गादास राठौड़ शिप्रा नदी के किनारे अवंतिका नगरी चले गए. 22 नवंबर 1718 में दुर्गादास राठौड़ का निधन हो गया. लाल पत्थर से बना उनका अतिसुंदर छत्र आज भी उज्जैन में चक्रतीर्थ नामक स्थान में शुशोभित है. जो सभी राजपूतो और देशभक्तों के लिए तीर्थ स्थान है . वीर दुर्गादास राजपूती साहस, पराक्रमी और वफादारी का एक उज्वल उदाहरण है. वह दुर्गादास राठौड़ ही थे जिन्होंने औरंगजेब की पूर्ण इस्लामीकरण की साजिश को विफल किया था और सनातन धर्म की रक्षा की थी.
इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने दुर्गादास राठौड़ के बारे में कहा है कि, “उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति उनके दृढ निश्चय को पीछे हटा सकी, बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमे राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी”.
भारत सरकार द्वारा वीर दुर्गादास राठौर के सिक्के और पोस्ट स्टाम्प भी जारी किये गए थे.”
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जय जय राजपूताना हमें गर्व है हमारे समाज के राठौड़ वीर दुर्गादास जिन्होंने हिंदुत्व की रक्षा की और दुनिया में राजपूतों का मान बढ़ाया
मारवाड़ के थे दुर्गादास अजमेर से नहीं थे मिस प्रिंट लिखा आपने यही