भीष्माष्टमी या भीष्म अष्टमी की कहानी, इसका महत्व और और पितरों को की जाने वाली पूजा विधि | Bhishmastami Story, Mahatva and Pitra Puja Vidhi in Hindi
माघ माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भीष्माष्टमी या भीष्म अष्टमी मनायी जाती हैं. इसी दिन कुरुक्षेत्र युद्ध के महान योद्धा भीष्म पितामह ने अपनी देह का त्याग किया था. भीष्म पितामह को गंगा पुत्र भी कहा जाता हैं. उन्हें यह वरदान प्राप्त था कि उनकी मृत्यु कब होगी यह वह स्वयं तय कर सकते थे. यह अष्टमी सूर्य उत्तरायण होने के कुछ दिन के बाद आती हैं. इसी दिन की महत्ता को जानते हुए भीष्म ने इस दिन को अपने देह त्याग के लिए चुना था. अग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह अष्टमी जनवरी या फ़रवरी माह में आती हैं.
भीष्माष्टमी पर्व को हिन्दुओं द्वारा देश के अलग-अलग भाग में मनाया जाता हैं. इसे वर्ष के बड़े त्योहारों में नहीं गिना जाता हैं इसीलिए इसे मानने वाले लोगों की संख्या भी सीमित हैं. लेकिन सबसे ज्यादा इसका महत्व और पूजा पाठ बंगाल राज्य में देखने को मिलता हैं. इसके अलावा विश्व में स्थित सभी इस्कॉन मंदिर में भी इसे त्यौहार की तरह मनाया जाता हैं.
भीष्माष्टमी की तिथि (Bhishmastami Dates)
वर्ष 2018 से 2025 तक
वर्ष | दिनांक | वार |
2018 | 25 जनवरी | गुरुवार |
2019 | 13 फरवरी | बुधवार |
2020 | 2 फरवरी | रविवार |
2021 | 20 फरवरी | शनिवार |
2022 | 8 फरवरी | मंगलवार |
2023 | 28 जनवरी | शनिवार |
2024 | 16 फरवरी | शुक्रवार |
2025 | 5 फरवरी | बुधवार |
भीष्माष्टमी व्रत कथा (Bhishmastami Vrat Katha)
कौरव वंश में शांतनु नामक राजा होते है. शांतनु गंगा जी से विवाह करते हैं लेकिन विवाह से पहले गंगा शांतनु के समक्ष एक शर्त रखती हैं कि वह कुछ भी कार्य करे शांतनु उन्हें कभी भी रोकेंगे नहीं अन्यथा वह उन्हें छोड़कर हमेशा के लिए चली जाएगी. प्रेम की आँखों में चूर शांतनु गंगा की शर्त मान लेते हैं. विवाह के बाद गंगा और शांतनु का पुत्र होता हैं गंगा अपने पुत्र को नदी में डुबो आती हैं और यह सिलसिला चल पड़ता हैं. गंगा जन्म के बाद सात पुत्रों को नदी में डुबो आती हैं. जब आठवें पुत्र का जन्म होता हैं तब गंगा जी उसे भी लेकर डुबोने चली जाती हैं लेकिन इस बार शांतनु उन्हें ऐसा करने से रोक देते हैं और इसके पीछे का कारण पूछते हैं. गंगा जी कहती हैं यह सभी वसु थे. किसी श्रापवश मृत्युलोक में जन्मे थे जिनको मैंने मुक्ति दिलाई. चूँकि आपने मुझे रोका हैं इसलिए अब मैं जा रही हूँ” वहीँ गंगा और शांतनु का आठवाँ पुत्र देवव्रत के नाम से मशहूर हुआ. जिसे भीष्म पितामह के नाम से भी जाना जाता हैं.
देवव्रत ने अपना बचपन और शिक्षा माँ गंगा के आँचल से ही ली. शिक्षा पूरी होने के बाद गंगा जी देवव्रत को शांतनु के पास छोड़ देती हैं. शांतनु उसे अपने राज्य का उत्तराधिकारी और युवराज घोषित करते हैं.
कुछ समय बीतने के पश्चात् शांतनु को केवट हरिदास की पुत्री मत्स्यगंधा (सत्यवती) से प्रेम हो जाता हैं. वह केवट के पास जाकर बेटी के साथ शादी का प्रस्ताव रखते हैं. केवट महाराज से अपनी बेटी की शादी के लिए तो तैयार हो जाता हैं लेकिन वह शांतनु के सामने यह शर्त रखता हैं कि मेरी पुत्री का ज्येष्ठ पुत्र ही राजसिंहासन पर बैठेगा. शांतनु दुखी मन से महल लौट आते हैं. पिता को मौन और परेशान देखकर गंगापुत्र इस बात के पीछे का कारण ढूंढने के लिए निकल पड़ते हैं. केवट उन्हें पूरी कहानी बताता हैं. सभी बाते सुनने के बाद देवव्रत गंगा का पावन जल को हाथ में लेकर प्रतिज्ञा लेते हैं कि “वह जीवन भर अविवाहित रहेंगे. उनकी कोई संतान नहीं होगी.” पिता के लिए यह समर्पण भाव देखते हुए प्रसन्न शांतनु उनके इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं. देवव्रत की इसी कठिन प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पितामह पड़ा.
महाभारत युद्ध के बाद जैसे ही सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हुआ भीष्म पितामह ने अपने प्राण त्याग दिए. जिसके बाद उनके निर्वाण दिवस को भीष्माष्टमी के रूप में मनाया जाता हैं.
भीष्माष्टमी का महत्व
भीष्म पितामह कुरुक्षेत्र के रण के महान योद्धा थे. पिता शांतनु को दिए अपने वचन के कारण वह जीवन काल अविवाहित रहे थे. उनकी इस प्रतिज्ञा और प्रेम को देखते हुए उनके पिता ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था. जिसके अनुसार वह कभी भी अपनी इच्छा के अनुसार मृत्यु को प्राप्त कर सकते थे. उनको मरने का सामर्थ्य संसार में किसी के पास भी नहीं था.
महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह ने कौरवों की ओर से सेना का नेतृत्व किया था. वह जानते थे कि वह अधर्म का साथ दे रहे हैं लेकिन सिहासन के प्रति प्रतिबद्धता के कारण उन्हें कौरवों का साथ देना पड़ा. महाभारत के युद्ध के दौरान जब वह घायल हो गए तब भी मृत्यु उन्हें जीत नहीं सकी. महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद उन्होंने माघ महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तक शुभ दिन की प्रतीक्षा की ओर देह त्याग किये. हिन्दू रीति रिवाजों में भी जब सूर्य दक्षिणायन में होते हैं. तो वह समय अशुभ माना जाता हैं. जब तक सूर्य भगवान उत्तर दिशा में वापस नहीं जाता तब तक सभी प्रथाओं को स्थगित कर दिया जाता है.
माघ महिने की अष्टमी आते ही सूर्य उत्तरी दीक्षा में आ जाता हैं इसे “उत्तरायन” काल कहा जाता है. भीष्म अष्टमी का पूरा दिन किसी भी शुभ गतिविधि को करने के लिए अनुकूल माना जाता है. यह दिन उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण होता हैं जो कि अपने पित्र दोष से मुक्ति पाना चाहते हैं. इसके अलावा इस दिन पुत्र रहित दम्पति और नव विवाहित दम्पति पुत्र रत्न की इच्छा में उपवास रखते हैं. ऐसी मान्यता हैं कि इस दिन उपवास रखने से भीष्म पितामह उन्ही तरह बलशाली और बुद्धिमान पुत्र पाने का आशीर्वाद देते हैं.
भीष्माष्टमी पूजा विधि (Bhishmastami Puja Vidhi)
भीष्माष्टमी के दिन सबसे ज्यादा महत्व तर्पण करने का हैं. तर्पण का यह कार्य लोग अपने पूर्वज और भीष्म के लिए करते हैं. पवित्र नदी जैसे गंगा और नर्मदा में स्नान करना बेहद ही पवित्र माना गया हैं. ऐसा कहा जाता हैं कि यह सब करने से इंसान सभी पापो से मुक्त हो जाता हैं और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता हैं.
भीष्माष्टमी पूजा विधि प्रक्रिया
प्रातः काल जल्दी उठकर नित्य अन्य कामों में पड़ने से पहले किसी नदी और जलाशय में स्नान करके स्वच्छ कपडे धारण कर ले. यदि नदी और जलाशय निकट नहीं हैं तो अपने ही घर में स्नान कर ले. स्नान के बाद हथेलियों में जल लेकर उसमे तिल और कुश डालकर दक्षिण दिशा की और मुख रखकर यह मंत्र का तर्पण करे.
गंगापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे।।
भीष्म: शान्तनवो वीर: सत्यवादी जितेन्द्रिय:।
आभिरभिद्रवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम्।।
तर्पण के बाद भीष्म पितामह के इस मंत्र द्वारा अर्घ्य प्रदान करे
अर्घ्यंददामि भीष्माय आबालब्रह्मचारिणे।।
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