महर्षि विश्वामित्र कौन थे? विश्वामित्र जयंती कब है? इनसे जुड़ी कहानी
Vishwamitra Jayanti 2020 and Story In Hindi
महर्षि विश्वामित्र वैदिक काल के महान ऋषि एवं तपस्वी थे. प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे, विश्वामित्र गाधि के ही पुत्र थे. वे जन्म से क्षत्रिय थे. वे प्रजा प्रिय अतिबलशाली राजा कौशिक थे एवं अपने समय के वीर और ख्यातिप्राप्त राजाओं में गिने जाते थे. उन्होंने लम्बे समय तक सफलतापूर्वक राज्य किया. परन्तु उन्होंने अपनी हठ, पुरुषार्थ एवं तपस्या के बल से क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व प्राप्त किया. राजर्षि से महर्षि बन गए एवं देवताओं तथा ऋषियों के लिए पूज्यनीय बने. विश्वामित्र को सप्तर्षियों में स्थान प्राप्त हुआ. तप के बाद इन्हें चारो वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ एवं इन्होंने ही सर्वप्रथम गायत्री मंत्र को समझा.
विश्वामित्र जयंती | Vishwamitra Jayanti 2020
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की तृतीय को महर्षि विश्वामित्र का जन्म हुआ था. इसलिए प्रतिवर्ष इस तिथि को विश्वामित्र जयंती के रूप में मनाया जाता है.
इस बार विश्वामित्र जयंती – 17 नवम्बर 2020
महर्षि विश्वामित्र से जुड़ी कहानियाँ | Vishwamitra Story In Hindi
- ऋषि वशिष्ठ से भेंट एवं कामधेनु का मांगना-
एक दिन राजा कौशिक (विश्वामित्र) अपनी सेना के साथ जंगल से गुजर रहे थे. वही ऋषि वशिष्ठ का आश्रम देख उनसे भेंट करने अपनी सेना को लेकर ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे. वशिष्ठ जी ने राजा कौशिक (विश्वामित्र) का यथोचित आदर सत्कार किया और उनकी विशाल सेना को भर पेट भोजन भी कराया.
यह देख राजा कौशिक को बहुत आश्चर्य हुआ कि कैसे एक ब्राह्मण विशाल सेना को इतने स्वादिष्ट व्यंजन खिला सकता हैं. इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए राजा कौशिक ने वशिष्ठ से पूछा- है ” गुरुवर! आपने मेरी इतनी विशाल सेना के लिये इतनी जल्दी स्वादिष्ट भोजन का प्रबंध कैसे किया? तब ऋषि वशिष्ठ ने बताया कि उनके पास इंद्र की दी हुई स्वर्ग की कामधेनु गौ की बछड़ी गाय नंदिनी है. यह सब उसी के द्वारा सम्भव हुआ है. नंदिनी के बारे में जानने के बाद राजा कौशिक (विश्वामित्र) ने उनसे नंदिनी गाय मांग ली तथा उसके बदले वशिष्ठ को वे जितना मांगे उतना धन देने का प्रस्ताव रखा. जिस पर ऋषि वशिष्ठ ने कहा यह गौ मुझे अपने प्राणों से प्रिय है एवं अमूल्य है, इसका कोई मोल नही हो सकता. ऐसा कहकर उन्होंने नंदिनी गौ देने से मना कर दिया.
- कामधेनु के लिए संघर्ष-
वशिष्ठ द्वारा राजा कौशिक (विश्वामित्र) को कामधेनु गौ नंदिनी देने से मना कर दिया गया. ऐसा सुनकर राजा कौशिक ने अपने सैनिकों से गौ को बलपूर्वक यहाँ से ले जाने को कहा. सैनिक उस गौ को डण्डे से मार मार कर हाँकने लगे. उस समय नंदिनी क्रोधित होकर वशिष्ठ के पास आ गई और ऋषि से सेना से आक्रमण करने का आदेश मांगने लगी. विशाल सेना के सामने विवश ऋषि ने गौ को सेना को ध्वस्त करने का आदेश दिया. नंदिनी गौ ने अपनी योग माया की शक्ति से राजा की विशाल सेना को ध्वस्त कर दिया. अपनी सेना का नाश होते देख राजा और उनके सौ पुत्रों ने ऋषि वशिष्ठ पर आक्रमण कर दिया जिससे क्रोधित होकर ऋषि ने श्राप दे कर राजा के एक पुत्र को छोड़ कर बाकी सभी पुत्रों को भस्म कर दिया.
- राजा की तपस्या और दिव्यास्त्रों की प्राप्ति-
अपनी सेना के नष्ट तथा पुत्रों के भस्म हो जाने से राजा कौशिक (विश्वामित्र) बड़े दुःखी हुये. वे अपने बचे हुये पुत्र को राज सिंहासन सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में तपस्या करने चले गये. अपनी कठिन तपस्या से वे भगवान शिव को प्रसन्न करने में सफल होते हैं | भगवान शिव प्रकट होकर राजा को वरदान मांगने को कहते हैं. तब राजा कौशिक भगवान शिव जी से सभी दिव्यास्त्र का ज्ञान मांगा. वरदान अनुसार शिव जी ने उन्हें सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्रों तथा धनुर्विद्या से सुशोभित किया.
- ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र का युद्ध
सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र अपने पुत्रों की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे. तथा वहां ऋषि वशिष्ठ पर आक्रमण कर दिया. दोनों ओर से धमासान युद्ध हुआ राजा विश्वामित्र ने एक के बाद एक ‘आग्नेयास्त्र’, ‘वरुणास्त्र’, ‘रुद्रास्त्र’, ‘ऐन्द्रास्त्र’ तथा ‘पाशुपतास्त्र’ छोड़े. जिन्हें वशिष्ठ ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया. अन्तः में क्रोधित होकर ऋषि वशिष्ठ ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया. जिससे ब्राह्मण में चारो ओर भयंकर ज्योति जलने लगी और सारा संसार पीड़ित होने लगा तब समस्त देवताओं ने वशिष्ठ से ब्रह्मास्त्र वापस लेने का अनुरोध किया. सभी के आग्रह एवं संसार की शांति के लिये वशिष्ठ ने ब्रह्मास्त्र वापस लिया. इसप्रकार युद्ध मे राजा कौशिक (विश्वामित्र) पराजित हुए.
- विश्वमित्र का ब्रह्मत्व की प्राप्ति के लिए तप
वशिष्ठ से मिली पराजय के कारण राजा कौशिक के मन को गहरा आघात पहुँचा. वे समझ गए कि एक क्षत्रिय की बाहरी ताकत किसी ब्राह्मण की योग की ताकत के आगे बहुत तुच्छ होती है. इस कारण उन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्ति के लिये तपस्या करने का निर्णय लिया. तपस्या हेतु वे अपनी पत्नी सहित दक्षिण दिशा की ओर चल दिये. वहां उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवनयापन करना आरम्भ कर दिया. विश्वामित्र की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें ‘राजर्षि’ का पद प्रदान किया. इस पद को प्राप्त करके भी वे प्रसन्न नही हुए. वे विचार करने लगे कि शायद उनकी तपस्या अभी पूर्ण नही हुई है इसकारण ही ब्रह्मा जी ने उन्हें केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नही. अतः वे पुनः तपस्या में लग गए.
- मेनका और विश्वामित्र-
जब विश्वामित्र तपस्या में लीन थे तब इंद्र को लगा कि वे तपस्या पूर्ण होने पर इंद्रासन मांग लेंगे इस कारण इंद्र ने स्वर्ग की मेनका अप्सरा को तपस्या भंग करने के लिए भेजा. अप्सरा मेनका अपने कार्य मे सफल रही और विश्वामित्र मेनका के सौंदर्य प्रभाव से सब कुछ छोड़कर मेनका के प्रेम में डूब गये. मेनका को भी विश्वामित्र से प्रेम हो गया. दोनों वर्षों तक संग रहे. लेकिन जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मेनका स्वर्ग की अप्सरा हैं और इंद्र द्वारा भेजी गई हैं तब विश्वामित्र ने मेनका को शाप दिया. जिससे कारण उनकी संताने स्वर्ग को छोड़ पृथ्वी पर ही पली बड़ी एवं बाद में इनकी संतान भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा.
बाद में जब विश्वामित्र का क्रोध शांत हुआ तब इनके मन में पश्चात्ताप हुआ. जिसके कारण वे पुन: कठोर तपस्या में लगे और सिद्ध हो गये. तपस्या में सफल होने पर उन्होंने काम एवं क्रोध पर विजय पा ली. तबसे इनका नाम विश्वामित्र हो गया. विश्वामित्र का अर्थ होता है सबके साथ मैत्री अथवा प्रेम.
- त्रिशंकु की स्वर्ग यात्रा-
त्रिशंकु नाम के एक राजा थे. वे सशरीर स्वर्ग जाना जाते थे जो कि पृकृति के नियमों के विरुद्ध था. इसके लिए त्रिशंकु ऋषि वशिष्ठ के पास गये लेकिन वशिष्ठ ने नियमो के विरुद्ध ना जाने का फैसला लिया और त्रिशंकु को खाली हाथ लौटना पड़ा. फिर त्रिशंकु वशिष्ठ के पुत्रों के पास गये और अपनी इच्छा बताई तब पुत्रों ने अपने पिता का अपमान समझ कर क्रोधित होकर त्रिशंकु को चांडाल हो जाने का शाप दिया. फिर भी त्रिशंकु नहीं माने और विश्वामित्र के पास गये.
वशिष्ठ से बैर के कारण विश्वामित्र ने उन्हें उनकी इच्छा पूरी करने का वचन दिया जिस हेतु उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया और इसके लिये कई ब्राह्मणों को न्यौता भेजा. उन्होंने वशिष्ठ और उनके पुत्रो को भी न्योता भेजा. वशिष्ठ के पुत्रों ने यज्ञ का तिरस्कार किया उन्होंने कहा – ” हम ऐसे यज्ञ का हिस्सा कतई नहीं बनेगे जिसमे चांडाल के लिए हो और किसी क्षत्रिय पुरोहित के द्वारा किया जा रहा हो “. उनके ऐसे वचनों को सुन विश्वामित्र ने उन्हें शाप से वशिष्ठ के सारे पुत्रो को यमलोक पहुँचा दिया.
वशिष्ठ जी के पुत्रों के परिणाम से भयभीत सभी ऋषि मुनियों ने यज्ञ में विश्वामित्र का साथ दिया. यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया. इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्ध्य जल हाथ में लेकर कहा कि ” हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ “. इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुये आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुये स्वर्ग जा पहुँचे.
त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि ” रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है “. इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे. विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गये. त्रिशंकु की पीड़ा की कल्पना करके विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की रचना कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया.
इसके बाद उन्होंने नये इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे. तब विश्वामित्र ने कहा कि मैंने अपना वचन पूरा करने के लिए यह सब किया हैं अब से त्रिशंकु इसी नक्षत्र में रहेगा और देवताओं की सत्ता को कोई हानि भी नहीं होगी.
- विश्वामित्र को ‘ब्रह्मर्षि’ की प्राप्ति-
इस सबके बाद विश्वामित्र ने फिर से अपनी ब्रह्मर्षि बनने की इच्छा को पूरा करने के लिए पुनः कठोर तपस्या में चले गए. उनके इस तपस्या मार्ग में अनेक प्रकार के विघ्न आये किंतु उन्होंने बिना क्रोध किए सब विघ्नों का निवारण किया. उन्होंने श्वास रोक कर तपस्या की. उनके शरीर का तेज से प्रज्ज्वलित होने लगा और उन्हें अपने क्रोध पर भी विजय प्राप्त हुई तब जाकर ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उन्हें ‘ब्रह्मर्षि’ का पद दिया. तब विश्वामित्र ने उनसे ॐ का ज्ञान भी प्राप्त किया और गायत्री मन्त्र को जाना.
ऋषि वशिष्ठ द्वारा मान्यता–
विश्वामित्र के इस कठिन त़प का वृतांत सुनने बाद वशिष्ठ ने भी उन्हें गले लगाकर उनके ‘ब्रह्मर्षि’ पद एवं उन्हें ब्राह्मण के रूप में स्वीकार किया.और तब से उन्हें महर्षि विश्वामित्र के रूप में जाना जाने लगा.
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