कबीर दास के दोहे- भाग 2 | Kabir ke Dohe Part 2 in Hindi

कवि और संत कबीर के दोहे अर्थ सहित (भाग 2) हिंदी भाषा में | Sant Kabir Dohe with Meaning in Hindi | Kabir Ke Dohe Arth Ke Sath

कबीर दास के दोहे- भाग 2 (Kabir ke Dohe Part 2)

Doha No. 51 –

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 51 ॥
Tab Lag Yara Jagmage, Jab Lag Uge Na Sur
Tab Lag Jeev Jag Karmavash, Jyon Lag Gyan Na Pur

अर्थ : संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं जब तक आसमान में सूर्य का उदय नहीं होता तब तक तारे आसमान में दिखाई देते हैं. सूर्य का उदय होने के बाद तारों की चमक ख़त्म हो जाती हैं उसी प्रकार जीव को जब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक वह सांसारिक कर्म में वशीभूत रहता हैं और मोह-माया में लिप्त होकर तरह तरह के दु:खों को झेलता हुआ जीवन-मरण के चक्रव्युव्ह में फंसा रहता हैं.

Doha No. 52 –

आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 52 ॥
Aas Parai Rakht, Khaya Ghar Ka Khet
Auran Ko Pt Bhodhta, Much Me Pad Ret

अर्थ : कबीर दास जी ने इस दोहे में लोगों को ईश भक्ति के बारे में ही बात करने की बात कही हैं कबीर कहते हैं कि इच्छा वश हम दूसरों की चीज़े पाने की कोशिश करते हैं. लेकिन यह भूल जाते हैं कि दाना हमको खुद के खेत का ही खाना पड़ता हैं. दूसरों की गलती बताने के बजाये खुद के अन्न के बारे में सोचना जरुरी हैं नहीं तो खाते समय अन्न के साथ रेत मुँह में आती हैं. उसी प्रकार दूसरों के किस प्रकार की भक्ति की चर्चा करने के बजाये खुद की भक्ति में मन लगाना चाहिए.

Doha No. 53 –

सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 53 ॥
Sona Sajjan, Sadhu, Jan, Tut Jade So Baar
Durjan Kumbh Kumhar Ke Aeke Dhaka Darar

अर्थ : कबीर के अनुसार सज्जन और साधू सोने की तरह होते हैं सोना यदि सो बार भी तोड़कर पुनः बनाया जाए तो भी उसकी चमक फीकी नहीं पड़ती हैं उसी प्रकार सज्जन पुरुष हर अवस्था में समान रहते हैं. इसके विपरीत दुष्ट और स्वार्थी लोग कुम्हार के मिटटी के घड़े की तरह होते हैं जो एक बार टूटने पर दुबारा कभी नहीं जुड़ता.

Doha No. 54 –

सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 54 ॥
Sab Dharti Karaj Karun, Lekhani Sab Banray
Saat Samudra Ki Masi Karun, Gurugun Likha Na Jaay

अर्थ : कबीर दास जी ने इस दोहे में अपने सतगुरु की महानता के बारे में बताते हुए कहा है कि यदि मैं पूरी धरती को कागज समान मान लूँ पेड़ों को कलम बना दूँ और पूरा समुद्र स्याही हो. तब भी मेरे गुरु के गुणगान को पूरा नहीं लिखा जा सकता हैं.

Doha No. 55 –

बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 55 ॥
Balihari Va Dudh Ki, Jaame Nikase Gheev
Ghee Saakhi Kabir Ki, Chaar Ved Ka Jeev

अर्थ : कबीर कहते हैं जिस प्रकार घी, दूध व बलिहारी का निचोड़ होता हैं उसी प्रकार घी समान मेरी ईश्वर के प्रति भक्ति चारों वेदों के निचोड़ समान हैं.

Doha No. 56 –

आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 56 ॥
Aag Jo Laagi Samudra Me, Dhuaa Na Prakat Hoy
So Jaane Jo Jarmua, Jaki Lai Hoye

अर्थ : जिस प्रकार सूर्य की तपिस से लगी समुंद्र में आग का धुआँ नजर नहीं आता हैं (यानी भाप) उसी प्रकार ऐसे मनुष्य को अपनी जीवन में लाना चाहिए जो विपत्तियों और विषम परिस्थियों के समय भी टूटे नहीं और अपने क्रोध पर काबू रखे.

Doha No. 57 –

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 57 ॥
Sadhu Ganthi na bandhai, udar samata ley
Aage-piche hari khade jab bhoge tab dey

अर्थ : कबीर के दोहे (Kabir ke Dohe) के अनुसार साधू को कभी भी भोजन का लालच नहीं करना चाहिए. साधू के पेट को जितनी जरुरत होती हैं वह उतना की खाना खाता हैं क्योकि वह जानता हैं उसके आगे-पीछे ईश्वर खड़े हुए हैं. जब भी उन्हें भोजन की आवश्यकता होगी स्वयं भगवान ही उनका पेट भर देंगे.

Doha No. 58 –

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 58 ॥
Ghat Ka Parda Kholkar, Sunmukh De Didar
Baal Sane Hi Saiya, Aava Ant Ka Yaar

अर्थ : कबीर कहते हैं, हे मनुष्य जरा अपने मन का पर्दा उठाकर देख, तुझे उस परमेश्वर के दर्शन हो जायेंगे जो कि बचपन से तेरा मित्र हैं और मृत्यु तक तेरे साथ रहने वाला हैं. जो तेरे मन में बसता हैं.

Doha No. 59 –

कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 59 ॥
Kabira Khalik Jagiya, Aur Naa Jage Koy
Jake Vishaya Vish Bhara, Das Bandagi Hoy

अर्थ : कबीर के अनुसार खालिक जागिया यानी दुनिया बनाने वाले (यानि ईश्वर) की पूजा करने वाले के अलावा इस संसार में कोई भी जगा हुआ नहीं हैं कोई दूसरों के जीवन में विष भरने में लगा हुआ हैं कोई दास की भांति अपना जीवन काट रहा हैं.

Doha No. 60 –

ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 60 ॥
Unche Kul Me Jaamiya, Karni Unch Na Hoy
Soaran Kalash Sura,Bhari, Sadhu Ninda Soy

अर्थ : यदि कोई पुरुष ऊँचे कुल में जन्मा हैं तब भी उसके कर्म उच्च नहीं नहीं तो वह ठीक उसी प्रकार हैं कि साधू के यहाँ सोने के कलश में सुरा (शराब) पड़ी हुई हैं. यानी इस तरह के व्यक्ति से केवल कुल की बदनामी ही होगी.

Kabir ke Dohe Part 2 in Hindi

Doha No. 61 –

सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥ 61 ॥
Sumran Ko Subyo Karo, Jyon Gagar Panihar
Hole Hole Surat Me, Kahen Kabir Vichar

अर्थ : कबीर अपने इस दोहे में अपनी भक्ति को और भी तीव्रता से करने को कह रहे हैं. कबीर कहते हैं अपनी ईश्वर के प्रति भक्ति को इस प्रकार उच्च बना दो जिस तरह गगार (बड़ा लम्बा मटका). जिसमे एक बार में इतना पानी समाहित हो जाता हैं कि जिससे अन्य घड़े कई बार भरे जा सकते हैं. कबीर कहते हैं ईश्वर के प्रति निष्ठा का यह कार्य केवल धीरे-धीरे रोज आनंद पूर्वक करने से ही संभव हैं.

Doha No. 62 –

सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 62 ॥
Sab Aaye Is Ek Me, Daal-Paat Fal Phul
Kabira Picha Kya Raha, Gah Pakadi Jab Mul

अर्थ : कबीर के अनुसार इस संसार में पेड़, पौधे, फल, फुल, मानव या जानवर सब एक ही जगह से आये हैं और सभी को यह पता हैं कि वह सभी मिट्टी में भी मिल जायेगे. कबीर कहते हैं जब हमें पता हैं कहाँ से आये हैं, कहाँ जाना हैं, तो सांसारिक दुनिया में मोह माया में पड़ने के बजाये मूल (ईशभक्ति) की और हमें अग्रसर होना चाहिए.

Doha No. 63 –

जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 63 ॥
Jo jan bheege ramras, vigat kabahun na rukh
Anubhav bhav na darsate, na dukh na sukh

अर्थ : कबीर कहते हैं (Kabir ke Dohe) जिस किसी ने भी राम नाम रूपी भक्तिरस का पान कर लिया हैं उसे कभी भी दु:खों का सामना नहीं करना पड़ता हैं. उसके लिए अनुभव का भाव समाप्त हो जाता हैं उसे न तो दुःख की अनुभूति होती हैं न ही सुख की. वह केवल अलौकिक आनंद का अनुभव कर पाता हैं.

Doha No. 64 –

सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 64 ॥
Sinh akela ban rahe, palak palak kar daur
Jaisa ban hain aapna, taisa ban hain aur

अर्थ : कबीर ने इस दोहे में सांसारिक प्रथाओं पर व्यंग किया हैं. कबीर के अनुसार हम खुद को सिंह की तरह मानते हैं लेकिन दिन भर क्षण-क्षण धन की मोह माया में भटकते रहते हैं. इसके बाद भी हम जिस तरह की तुच्छ जिंदगी बिता रहे हैं उसी प्रकार की ज़िन्दगी दूसरों को भी बिताने को कहते रहते हैं.

Doha No. 65 –

यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥ 65 ॥
Yah maya hai chuhadi, aur chuhada kijo
Bhap-put urabhaya ke, sang na kaho keho

अर्थ : संत शिरोमणि कबीर दास कहते हैं सांसारिक मोह माया बहुत ही चूहड़ी हैं अर्थात नीच प्रकृति की हैं. इस नीच प्रकृति वाली माया से बचो और इसके मोहनी रूप में न आओ.

Doha No. 66 –

जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥ 66 ॥
Jahar Ki Jamin Me Hai Ropa, Abhi Khinche Sau Baar
Kabir Khalak Na Taje, Jaame Kaun Vichar

अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब तूने धरती में जहर को बोया हैं तो सागर से अमृत खीचने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला. दुष्ट अपनी दुष्टता कहाँ छोड़ सकता हैं उसमे सोचने विचारने की शक्ति कहाँ होती हैं.

Doha No. 67 –

जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 67 ॥
Jag mai bairy koi nahi, jo man sheetal hoy
Yah aapa to daal de, daya kare sab hoy.

अर्थ : कबीर दास जी कहते है अगर हमारा मन शीतल है तो इस संसार में हमारा कोई बैरी नहीं हो सकता. अगर अहंकार छोड़ दें तो हर कोई हम पर दया करने को तैयार हो जाता है.

Doha No. 68 –

जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥ 68 ॥
Jo jaane jeev na aapna, karhi jeev ka saar
Jiva aisa pahona, mile na duji baar

अर्थ : संत कबीर कहते हैं जो लोग संसार में मौजूद अन्य जीवों को अपना नहीं समझते हैं उन्हें सम्मान नहीं देते हैं उनका जीवन व्यर्थ हैं यह जीवन बहुमूल्य हैं दूसरी बार नहीं मिलेगा.

Doha No. 69 –

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 69 ॥
Kabir jaat pukarya, chad chandan ki daar
Baat lagaye naa lage, phir kya let hamar

अर्थ : कबीर कहते हैं जब कोई हमारी तारीफ करता हैं तो हमारे अन्दर अहंकार ठीक उसी प्रकार चढ़ता जाता हैं जिस प्रकार चन्दन के पेड़ पर सांप ऊपर चढ़ता हैं. इस परिस्थिति में हम ना चाहते हुए भी अहंकारवश खुद का ही नुकसान करना शुरू कर देते हैं.

Doha No. 70 –

लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 70 ॥
Log bharose kaun ke, baith rahe uragaye
Jeey rahi lutam jam phire, maidha lute kasaay

अर्थ : कबीर कहते हैं कि उन्हें समझ नहीं आता है कि लोग किसके भरोसे में लापरवाही से बैठे रहते हैं वह जानते हैं जैसे कसाई मेंढ़े (बकरे) को मारता है उसी प्रकार जीव से प्राण हरने के लिए यम घात लगा कर बैठे रहते हैं. यम प्राण हर ले उससे पहले ही गुरु की शरण में जाकर ज्ञान प्राप्त करके संसार रूपी भवसागर से पार हो सकते हैं.

Doha No. 71 –

एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥ 71 ॥
Ek kahun to hain nahi, duja kahun to gay
Hain jaisa taisa ho rahe, rahe kabir vichar

अर्थ : कबीर कहते हैं यदि मैं ईश्वर को एक कहूँ तो यह भी सही नहीं हो सकता हैं क्योंकि ईश्वर हर जगह सर्वत्र विद्यमान हैं. यदि मैं दो कहूँ तो यह बुराई करने के समान होगा. इसीलिए मैं कबीर कहता हूँ जैसे आप हैं वैसे ही बने रहिये.

Doha No. 72 –

जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 72 ॥
Jo tu chahe mukt ko, chhod de sab aas
Mukt hi jaisa ho rahe, bas kuch tere pass

अर्थ : यदि आप इस दु:खों से भरे संसार से मुक्ति पाना चाहते हो तो सभी वस्तुओं की आस छोड़ देना चाहिए. यदि ऐसा नहीं किया तो जो आपके आस-पास पड़ा हुआ हैं एक दिन आपको ही अकेला छोड़ जायेगा.

Doha No. 73 –

साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 73 ॥
Sai aage sanch hain, sai sanch suhaay
Chahe bole case rakh, chahe ghont bhudaay

अर्थ : कबीर दास जी मानव को समझा रहे हैं कि ईश्वर के सामने सत्य (सच) ही चलता है. ईश्वर को झूठी और बनावटी बातों से कोसो दूर रहते हैं. अर्थात ईश्वर को केवल सत्य ही पसंद हैं. झूठे इंसान ईश्वर से कोसो दूर रहते हैं. और झूठा इंसान अपने गलत कर्मो का फल इस संसार में भोगता हैं. चाहे कोई बाल लम्बे रख ले जैसे साधू चाहे सर को मुंडवा ले. यह सब करने से ईश्वर को फर्क नहीं पड़ता हैं. ईश्वर तो सच्चे इंसान के दिल में रहते हैं. वहीँ उन्हें प्यारा लगता हैं फिर वह चाहे कैसा भी हो.

Doha No. 74 –

अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 74 ॥
Apne apne sakh ki, sabahi lini maan
Hari ki baaten durantara, puri na kahun jaan

अर्थ : ईश्वर के भेद जान पाना बेहद ही मुश्किल हैं मात्र थोडा सा जान और सुन लेने के बाद किसी को यह लगता हैं कि मैं सब कुछ जान चुका हूँ. मेरे समान दुनिया में कोई ज्ञानी नहीं हैं. कबीर के अनुसार वह संसार का सबसे बड़ा अज्ञानी हैं वह अपने अहंकार वश वास्तविक ज्ञान पाने से वांछित रह जाता हैं.

Kabir ke Dohe in Hindi

Doha No. 75 –

खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥ 75 ॥
Khet na chhode surma, jhujhe do dal moh
Aasha jivan maran ki, man me raakhe noh

अर्थ : कबीर दास के इस दोहे के अनुसार इस दुनिया में ऐसा कोई सुरमा नहीं हैं जो अपना खेत छोड़कर भक्ति में लग जाए जो हमेशा पहलवालों के दलों में कुश्ती की मोह माया के लिए फंसे रहते हैं. वह सभी असमाप्त आशाओं के इस जीवन मरण में झूलते रहते हैं. इन्हें अपने मन में रखना व्यर्थ हैं.

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Doha No. 76 –

लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥ 76 ॥
Leek purani ko taje, kayar kutil kaput
Leekh purani par rahe, shatir sinh saput

अर्थ : जो अपने पुराने कुल का नाम, ऐश और आराम देखता रहता हैं, वह कायर, दुष्ट और नालायक पुत्र हैं लेकिन जिनका मन परमेश्वर की कथा और भक्ति भाव में लगता हैं वही बुद्धिमान और लायक पुत्र हैं

Doha No. 77 –

सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥ 77 ॥
Sant purush ki aarasi, santon ki hi deh
Lakha jo chahe alakh ko, unhi me lakh leh

अर्थ : कबीर ने इस दोहे में ईश्वर की भक्ति के बारे में चर्चा करते हुए कहा हैं कि इस दुनिया में संतों का देह (यानि शरीर) ही साक्षात् ईश्वर का आइना हैं अगर तुम संतों का देह को छोड़कर अदृश्य भगवान के दर्शन करना चाहते हो तो मन में उन्हें ही रखकर नाम जप लो.

Doha No. 78 –

भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥ 78 ॥
Bhukh bhukha kya kare, kya sunave log
Bhanda ghad nij mukh diya, soi purn jog

अर्थ : कबीर कहते हैं (Kabir ke Dohe) तू अपने आप को भूखा-भूखा कहकर लोगों को सुनता फिरता हैं क्या लोग तेरे पेट की शुधा को शांत कर सकते हैं. जिस परमपिता परमेश्वर ने तुझे यह जीवन दिया हैं उस पर विश्वास रख वह तेरे पेट के लिए भी व्यवस्था कर देगा.

Doha No. 79 –

गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव ॥ 79 ॥
Garbh yogeshwar guru bina, laga har ka sev
Kahe kabir beikunth se, pher diya shukdev

अर्थ : कबीर दास ने इस दोहे में शुकदेव की कहानी बताई हैं. शुकदेव ने माँ के गर्भ में ही योगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, बिना गुरु के ही हरि भक्ति करना उसने शुरू कर दिया था. लेकिन वह जब वैकुण्ठ पहुंचा तो उसे द्वार से ही वापस भेज दिया गया. यह बोलकर कि बिना सतगुरु के उपदेश के उसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता हैं बाद में शुकदेव श्रीवेदव्यास का शिष्य बन गया.

Kabir ke Dohe Part 2 in Hindi

Doha No. 80 –

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 80 ॥
Prembhav ek chahiye, bhesh anek banaye
Chahe ghar me vaas kar, chahe ban ko jaay.

अर्थ : कबीर के अनुसार व्यक्ति के मन में प्रेम होना चाहिए फिर चाहे वह किसी भी अवस्था में हो. वह व्यक्ति भले ही महल में रहे या जंगल में प्रेम, भक्ति भाव एक ही हैं. एक गृहणी और साधू दोनों की भक्ति एक समान ही होती हैं. भेष से भक्ति पर फर्क नहीं पड़ता हैं.

Kabir ke Dohe Arth Sahit

Doha No. 81 –

कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 81 ॥
Kanche bhande se rahe, jyon kumhar ka deh
Bhitar se raksha kare, bahar choi deh

अर्थ : जिस तरह कोई कुमार कच्चे मिट्टी के बर्तन को आकार देने के लिए ऊपर से पिटता हैं लेकिन उसे आधार देने के लिए एक हाथ अन्दर रखता हैं. उसी प्रकार ईश्वर भी जब तकलीफ देते हैं तब वह उसे झेलने के लिए हिम्मत भी देता हैं.

Doha No. 82 –

साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 82 ॥
Sai te sab hote hain, bande se kuch naahin
Rai se parvat kare, parvat rai maahin

अर्थ : कबीर कहते हैं (Kabir ke Dohe) इस दुनिया में सभी कार्य परमपिता परमेश्वर की कृपा से संपन्न होते हैं, लोगों के करने से कुछ नहीं होता हैं. उसी ईश्वर की कृपा से रेत के पहाड़ बन जाया करते हैं और पहाड़ भूकंप में रेत में मिल जाते हैं.

Doha No. 83 –

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 83 ॥
Ketan din aise gaye, an ruche ka neh
Avasar bove upaje nahi, jo nahi barse meh.

अर्थ : कबीर ने इस दोहे में भाकरी में प्रेम का महत्व बताया हैं कबीर के अनुसार प्रेम के बिना भक्ति में वर्षों बर्बाद करने से कुछ फायदा नहीं होने वाला हैं यह उसी प्रकार हैं जैसे बंजर भूमि में बीच बोने के बाद चाहे कितना भी मेघ बरसे फल प्राप्त नहीं होता हैं. ऐसे ही बिना प्रेम के भक्ति अधूरी होती हैं.

Doha No. 84 –

एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 84 ॥
Ek te anant ant ek ho jay
Ek se parche bhaya, ek moh samay

अर्थ : उस एक ईश्वर से ही इस संसार की अनंत चीज़े का जन्म हुआ हैं और एक दिन उसी में यह सब समां जायेगा. उसमे से एक से जो लगातार उत्पन्न हो रहा हैं वह हैं माया जो कि अज्ञानता के रूप में मन के अन्दर समा जाता हैं. इसीलिए कबीर कहते हैं इंसान को मोह रूपी अज्ञानता का त्याग कर देना चाहिए.

Doha No. 85 –

साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 85 ॥
Sadhu sati aur surma, inki baat agadha
Aasha chhode deh ki, tan ki anathak sadh

अर्थ : क्या साधू, क्या सती और क्या कोई योद्धा, इस संसार में सब नश्वर हैं. कबीर कहते हैं उस परमेश्वर को साधो क्योकि वो ईश्वर ही तुम्हे इस नश्वर देह से मुक्त करने वाला है.

Doha No. 86 –

हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 86 ॥
Hari sangat sheetal bhaya, miti moh ki taap
Nishivasar sukh nidhi, laha ann pragata aap

अर्थ : हरि के भक्तों को भक्ति में ही शांति प्राप्त होती हैं, जिस मोहमाया के दुखों के ताप में आप जन्मों-जन्म से तप रहे हो वह सब हरि भक्ति से समाप्त हो जायेंगे. जब ईश्वर के प्रति भाव आपके मन में उत्पन्न हो जायेंगे फिर चिंतामुक्त रूपी सुख अपनेआप मन में निवास करने लग जायेगा.

Doha No. 87 –

आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 87 ॥
Aasha ka endhan karo, manasha karo babhut
Jogi pheri yon phiro, tab van aave sut

अर्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि यदि सच्चा योगी बनाना हैं तो आशा आशारूपी तृष्णा को जला दो, इच्छाओं को भी नष्ट कर दो इसके बाद जो आत्मविश्वास उत्पन्न होगा और से ही आपके अन्दर ज्ञान का प्रादुर्भाव होगा.

Doha No. 88 –

आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 88 ॥
Aag jo lagi samudra me, dhuaa na prakat hoy
So jane jo jarmua, jaki loi hoy

अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब समुंदर में आग लगती हैं तो धुँआ भी नजर नहीं आता. जिसके दिल में आग लगती हैं या तो वह जानता हैं या जो आग लगी हैं वही जानती हैं दिल की आग का ज्ञान तीसरे को नहीं होता.

Doha No. 89 –

आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 89 ॥
Aas parai raakhta, khaya ghar ka khet
Oarn ko path bodhta, mukh me dare ret

अर्थ : संत कबीर दास जी कहते हैं कि तुम दूसरों का ध्यान रखते हो और अपना जरा सा भी नहीं रखते हो. दूसरों को तुम ज्ञान के रास्ते दिखाते हो और खुद अज्ञानता रूपी रेतीले रास्ते पर चले जा रहे हो. अर्थात दुसरे को ईश्वर का ज्ञान करा रहे हो और खुद ईश्वर भजन से दूर क्यों हो.

Doha No. 90 –

आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 90 ॥
Aavat gaari ek hai, ultan hoy aneka
Kah kabir nahin ulatiye, vahin ek hi ek

अर्थ : कबीर कहते हैं कि अगर गाली का प्रति उत्तर यदि गाली में दिया जाए तो गलियों की संख्या एक से बढ़कर अनेक हो जाएगी. इसलिए गाली को ना पलता जाए अर्थात गाली का प्रतिउत्तर गाली से ना दिया जाए. तो बात वहीँ समाप्त हो जाएगी.

Doha No. 91 –

आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 91 ॥
Aahar kare manbhavana, indri ka swad
Naak talak puran bhare, to kahin kaun prasad

अर्थ : कबीर कहते हैं (Kabir ke Dohe) प्रसाद को कभी भी आहार सामान नहीं मानना चाहिए, यदि यदि प्रसाद भी आहार की तरह मनपसंद करे, स्वाद लेकर करे और पेट भर के करे तो आहार और प्रसाद में क्या असमानता रह जाएगी.

Doha No. 92 –

उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 92 ॥
Ujjawal pahare kapada, pan-supari khay
Ek hari ke naam bin, bandh yampur jaay

अर्थ : कबीर दस जी कहते हैं अमीर लोग हमेशा चमकदार कपडे पहनते हैं, सोने के बर्तनों में खाते हैं, चांदी से बना पान-सुपारी खाते हैं कभी भी हरि का गिन गान नहीं गाते हैं लेकिन यम यह सब कुछ भी यम के लिए बाधा उत्पन्न नहीं कर सकता हैं. यमदूत आकर यह सभी छोड़कर यमलोक ले जायेंगे.

Doha No. 93 –

उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 93 ॥
Utate koi na aavai, pasu punchu dhaay
Itane hi sab jaat hai, bhar ladaay ladaay

अर्थ : जो इस संसार से चले जाते हैं वह वापस कभी नहीं लौटते हैं उनके चले जाने के बाद आंसू बहाने से कुछ नहीं होने वाला हैं. संसार में कितने ही जीव हैं सभी को अपना भर उठाकर यम लोक जाना हैं.

Doha No. 95 –

फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय ।
जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 95 ॥
Falgun aavat dekhi ke, man jhure banray
Jin daali ham keli, so hi byore jay

अर्थ : फागुन महिना आते ही महावन (जंगल) का कलेजा सुख जाता हैं क्योकि फागुन ही ऐसा काल होता हैं जिसमे सारे पत्ते वृक्षों से गिर जाते हैं वे पत्ते कहते हैं कि जिन डालों पर हम खेला करते थे वे ही हवा से बिखरे जा रहे हैं.

Doha No. 96 –

काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 96 ॥
Kaal kaa; sab koi kahe, kaal na chinhe koy
Jeti man ki kalpana, kaal kahave soy

अर्थ : सब लोग खुद को सहज सहज दिखाने के लिए तुले रहते हैं लेकिन सहज की परिभाषा कोई भी समझ नहीं पाया. जिसने सहजपूर्ण ही सपनी सभी इच्छाओं- वासनाओं का परित्याग कर दिया उनकी स्थिति ही सहज कहलाती हैं.

Doha No. 97 –

सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश ।
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 97॥
Sab jag darape kaal son, brahma, Vishnu, Mahesh
Sur nar muni o lok sab, saat rasatal ses

अर्थ : ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सुर, नर, मुनि और सब लोक, साल रसातल तथा शेष तक जगत के सारे लोग काल के डरते हैं.

Doha No. 98 –

कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ ।
जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 98 ॥
Kabira pagara duri hain, aay pahunchi sanjh
Jan-jan ko man rakhta, veshya rahi gayi banjh

अर्थ : कबीर दास जी ने कहा है जीवन में लक्ष्य की सफलता अभी बहुत दूर हैं. बुढ़ापा या वृद्धावस्था रूपी शाम ढलने लगी है जिस प्रकार अनेको प्रेमी होने के बाद भी वेश्या बांझ रह जाती है उसी प्रकार लोगों के अनेक मत में पड़कर मानव मोक्ष का साधन करने से वंचित रह जाता है.

Doha No. 99 –

जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय ।
सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 99 ॥
Jay jharokhe sovata, fulan sej bichaay
So ab kahn dise nahi, chhin me gayo bolaay

अर्थ : कबीर दास कहते है जो लोग फूलों की सेज बिछाकर शीतल वायु का आनंद पाने के लिए महल की अटारियों पर सुख चैन की नींद सोते थे, वही अब कहीं दिखायी भी नहीं देते. काल ने उन सभी को नष्ट कर दिया. हे मानव! बीते हुए समय का ध्यान करके सचेत हो जा और अपने कल्याण का उपाय कर. अन्यथा तू भी उन्ही लोगो की तरह एक दिन नष्ट हो जायेगा.

Doha No. 100 –

काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान ।
कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 100 ॥
Kaal phire sire upare, hathon dhari Kaman
Kahen kabir gahu gyan ko, chhod sakal abhiman

अर्थ : कबीर दस जी कहते हैं काल (मृत्यु) अपने हाथों में धनुष बाण लेकर सर के आस पास घूम रहा हैं किसी भी समय वह प्राण खीचकर यम लोक ले जायेगा. इसीलिए कबीर कहते हैं कि सम्पूर्ण अहंकार को त्यागकर ज्ञान को ग्रहण करो.

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