शिवलिंग पर जलाभिषेक करने का वैज्ञानिक और अध्यात्मिक कारण | Scientific and Spritual Reasons Behind Jalabhishek on Lord Shiva in Hindi
आप सभी जानते हैं कि शिवलिंग पर जलाभिषेक करने की परंपरा हैं. हर शिवलिंग पर एक जल का घड़ा भरा हुआ रहता है जिसमें से निरंतर जल की धारा या बूंद शिवलिंग पर टपकती रहती है.
छठी शताब्दी में उज्जैन में वराह मिहिर नाम के महान गणितज्ञ हुए थे. वराहमिहिर गणित, ज्योतिष और विज्ञान के प्रकांड पंडित थे. इन्होंने कई आविष्कार किए थे और विभिन्न यंत्रों का निर्माण किया था. इन यंत्रों में इन्होंने एक समय मापक घट यंत्र का निर्माण किया था. इस यंत्र का निर्माण उन्होंने समय मापने के लिए किया था. उन्होंने एक निश्चित आकार के घड़े में छेद करके उसे पानी से भरकर लटका दिया.
उस घड़े से बूँद बूँद पानी टपकता रहता और जितने समय में वह खाली होता हैं. उसे एक घडी मतलब 24 मिनिट का समय माना जाता था. वराहमिहिर अपना यह यंत्र भगवान महांकाल को समर्पित करना चाहते थे. इसी लिए वराहमिहिर ने इस यन्त्र को उज्जैन के महांकाल शिवलिंग के पास स्थापित कर दिया.
परन्तु इस यन्त्र को शिवलिंग के ऊपर स्थापित करने का अध्यात्मिक और वैज्ञानिक कारण भी हैं. अगर आप भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के न्यूक्लियर रिएक्टर की रचना देखेंगे तो पता चलता हैं कि न्यूक्लियर रिएक्टर और शिवलिंग का आकर एक जैसा हैं.
न्यूक्लियर रिएक्टर की रचना शिवलिंग के जैसी होना कोई संयोग की बात नहीं है. अगर हम भारत के रेडियो एक्टिविटी मानचित्र का अध्ययन करेंगे तो पता चलता है कि भारत सरकार के न्यूक्लियर रिएक्टरों के अलावा जिस जिस स्थान पर ज्योतिर्लिंग मौजूद है सबसे ज्यादा रेडिएशन वहीं पर पाया जाता है. इसका तात्पर्य यह है कि शिवलिंग का संबंध भी प्रत्यक्ष रुप से उर्जा से ही है.
शिवलिंग भी रेडियोएक्टिव रिएक्टर की तरह ऊर्जा के पूंज के रूप में स्थापित है. और यही कारण है कि महाकाल की प्रलयकारी उर्जा को शांत करने के लिए शिवलिंग पर निरंतर जल का अभिषेक किया जाता है. और देश के ज्यादातर शिवलिंग वही पाए जाते हैं जहां पर जल का स्त्रोत अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है. और दुनिया भर के सारे न्यूक्लियर प्लांट भी नदी या समुद्र के किनारे स्थापित किए गए हैं.
इन न्यूक्लियर रिएक्टर को ठंडा करने के लिए जिस पानी का इस्तेमाल किया जाता है. उस पानी को इंसानों के संपर्क से दूर रखकर सुरक्षित तरीके से डिस्पोस किया जाता है और किसी अन्य उपयोग में भी नहीं लिया जाता है.
ठीक उसी प्रकार हम जानते हैं कि शिवलिंग पर गिरा हुआ जल जिस मार्ग से बहता है उस मार्ग को लांघा नहीं जाता है और ना ही प्रसाद के रूप में उस जल को ग्रहण किया जाता है.
शिवलिंग पर जल चढ़ाने का आध्यात्मिक कारण यह है कि विष्णु पुराण के अनुसार समुद्र मंथन के समय हलाहल विष की उत्पत्ति हुई थी. जो संपूर्ण विश्व के लिए हानिकारक था. किसी में भी इतनी शक्ति नहीं थी कि वह विश्व के प्रभाव को समाप्त कर सकें. भगवान शिव ने संपूर्ण विश्व की रक्षा के लिए उस विष का पान किया था. इससे शिव जी का पूरा शरीर नीला पड़ गया था. इस पर सभी देवताओं ने उन पर जल का अभिषेक किया था. परंतु इसके बाद भी शिव जी का कंठ नीला ही था. तब देवताओं ने उन्हें बेलपत्र ग्रहण करने के लिए कहा. क्योंकि बेलपत्र विष के प्रभाव को कम करता है. इसीलिए शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है और उस पर बेलपत्र भी चढ़ाया जाता है.
भारतीय सनातन संस्कृति की परंपराओं के पीछे वैज्ञानिक कारण तो है और आध्यात्मिक कारण भी है. परंतु हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे ही लोगों द्वारा हमारी परंपराओं और विज्ञान के बीच परस्पर संबंध को सही नहीं माना जाता है. लेकिन यह सत्य हैं कि हमारी सभी परंपराएं वैज्ञानिक रूप से प्रामाणिक है. और इन परंपराओं का उद्देश्य कहीं ना कहीं प्रकृति और संस्कृति के संरक्षण में समाहित है.
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